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________________ तैसैं ग्यानवंत भेद ग्यान की सकति साधि, वेदै निज संपति उछेदै पद दल कौं । जैसे रजसोधा धूल सोधकर सोना चाँदी ग्रहण कर लेता है, अग्नि धाऊ को गलाकर सोना निकालती है, कर्दम में निर्मली डालने से वह पानी को साफ करके मैल हटा देती है, दही का मथने वाला ही मथ कर मक्खन को निकाल देता है, हंस दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है उसी प्रकार ज्ञानी आगे भेद विज्ञान के बल से आत्म-सम्पदा ग्रहण करते हैं और राग-द्वेष आदि पुद्गलादि परपदार्थो को त्याग देते हैं। यही बात निम्न सवैये से ओर भी स्पष्ट हो जाती है " जैसे राजहंस के बदन के सपरसत, देखिये प्रगट न्यारौ छीर न्यारौ नीर है। तैसे समकिती की सुदृष्टि में सहज रूप न्यारौ जीव न्यारौ कर्म न्यारौ ही शरीर है। जब शुद्ध चेतन को अनुभौ अम्यासै तब, भासै आपु अचल न दूजौ और सीर है। पूरब करम उदै आइकै दिखाई देइ, करता न होय तिन्हको तमास गीर है ।। जिस प्रकार हंस के मुख का स्पर्श होने से दूध और पानी पृथक-पृथक हो जाते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवों की सुदृष्टि में स्वभावतः जीव, कर्म और शरीर भिन्न-भिन्न भासते हैं। जब शुद्ध चैतन्य के अनुभव का अभ्यास होता है तब अपना अचल आत्मद्रव्य प्रतिभासित होता है, उसका किसी दूसरे से मिलाप नहीं दिखता। पूर्वबद्ध कर्म उदय में आये हुए दिखते हैं। परन्तु अहंबुद्धि के अभाव में उनका कर्ता नहीं होता, मात्र दर्शक रहता है। दुःख का मूल तो स्व मानना है यह सब कार्य मोह ही कराता है। यह बात निम्न दृष्टान्त से भी स्पष्ट हो जाती है ममत्व बुद्धि दुःख का कारण एक व्यक्ति ने जंगल में जाते हुए एक हाथी को एक बच्चे को सूंड में उठाकर मारते देखा । यह देखकर वह व्यक्ति चिल्ला उठा, अरे। मेरा बच्चा मारा गया और बेहोश हो जाता है परन्तु वह बच्चा उसका नहीं था। उसके सामने उसका बच्चा लाया गया, उसे देखते ही वह होश में आ गया। यहाँ उस व्यक्ति को सुख बच्चा देखने का नहीं हुआ अपितु उसे सुख इस बात का हुआ कि हाथी द्वारा मारा गया बच्चा उस का नहीं है। इसी तरह पर-पदार्थों में जब तक अपने पन की ममत्व बुद्धि रहेगी तब तक उस व्यक्ति के समान उसे बेहोशी का नशा छाया रहेगा और 183
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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