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________________ तुषमासभिन्नम् एक बार अनपढ़ शिवकुमार एक महिला के घर गये। वहाँ महिला दाल धो रही थी। शिवकुमार ने पूछा, आप क्या कर रही हैं, महिला ने कहा तुषमासभिन्नम् । शिवकुमार ने इसका अर्थ पूछा तो महिला बोली तुष का अर्थ छिलका मास का अर्थ है उड़द अर्थात् दाल से छिलका अलग कर रही हूँ जैसे ज्ञानी जन शरीर और आत्मा को अलग करते हैं। शिवकुमार ने सोचा, अरे शरीर से आत्मा अलग है, यह विचार कर तभी उसने जंगल में जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली और तपस्या करके भेद विज्ञान की छैनी से शरीर और आत्मा को अलग कर मोक्ष पद को प्राप्त किया। इसके विपरीत जो स्व-पर भेद से अनभिज्ञ हैं जो संसारी हैं यह निम्न सवैया से स्पष्ट होता हैजैसे गजराज नाज घास के गरास करि, भच्छत सुभाय नहिं भिन्न रस लीयो है। जैसे मतवारौ न हि जानै सिखरनि स्वाद, जुंग में मगन कहै गऊ दूध पीयौ है । तैसे मिथ्यादृष्टि जीव ग्यान रूपी है सदीव, पग्यौ पाप पुन्न सौं सहज सुन्न हीयौ है। चेतन अचेतन दुहूं कौ मिश्र पिंड लखि, एकमेक मानै न विवेक कछु कीयौ जैसे हाथी अनाज और घास का मिला हुआ ग्रास खाता है, पर खाने ही का स्वाद होने से जुदा जुदा स्वाद नहीं लेता; अथवा जिस प्रकार मद्य से मतवाले को श्रीखण्ड खिलाया जावे, तो वह नशे में उसका स्वाद न पहचान कर कहता है कि इसका स्वभाव गौ दुग्ध के समान है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि सदा ज्ञान मूर्ति है, तो भी पुण्य-पाप में लीन होने के कारण उसका हृदय आत्मज्ञान से शून्य रहता है इसके चेतन-अचेतन दोनों के मिले हुए पिण्ड को देखकर एक ही मानता है और कुछ विचार नहीं करते । || स्व और पर क्या है, किसे कहते हैं, निश्चय और व्यवहार का नाम ही स्व और पर है। स्व में ही आनन्द है स्व में शुद्ध आत्मा है और शुद्ध आत्मद्रव्य एक वस्तु है और गुण शक्ति है तथा पर्याय परिणमन है। भेद विज्ञानी हमेशा शुद्ध परिणमन में रहता है। भेद विज्ञान की क्रिया को पं० बनारसी दास अपने सवैये में निम्न प्रकार दर्शाते हैं जैसे रज सोधा रज सोधि है दरब काढ़े, पावक कनक काढ़ि दाहत उपल कौं । पंक के गरभ मैं ज्यों डारिये कतक फल, नीर करै उज्ज्वल नितारि डारै मल कौं ॥ दधि को मथैया मथि काढ़े जैसे माखन कौं, राजहंस जैसे दूध पीतै त्यागि जल कौं । 182
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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