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कभी-कभी किसी को शंका होती है कि आत्मा है अथवा नहीं। यह बात पर से पूछते हैं तो शंका किसमें हुई, आत्मा में और इसका निवारण हुआ तो भी आत्मा में। इससे सहज ही आत्मज्ञान हो जाता है और जिससे पूछा गया उससे 'पर' का भी ज्ञान हो गया। स्व-पर भेद ज्ञान न होने में मुख्य कारण भ्रम है और भ्रम का मूल कारण मिथ्यादर्शन है। भ्रम किसी दूसरे के द्वारा मिटाया नहीं जा सकता, स्वयं का ज्ञान ही इसका वास्तविक इलाज है। पं. दौलतराम जी छहढाला छठी ढाल में कहते हैं कि
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया।
वरणादि अरु रागादि तें, निज भाव को न्यारा किया। महा मुनिराज ध्यान करते समय अपनी तीक्ष्ण बुद्धि रूपी तेज छैनी के द्वारा अपने अन्तरंग का परदा फाड़ देते हैं और रूप, रस आदि पौद्गलिक बीस गुणों तथा रागादि विकारी भावों से अपने आत्मभाव को पृथक कर लेते हैं। वैराग्यमणिमाला में आ. विशालकीर्ति जी कहते हैं
द्वंद्वो चित्त! विशालसंसृतिवने तृष्णादवाग्न्युत्कटे,। कामक्रोधकरालके सरिकुले मूमिदाष्टापदे ।।
क्रूरस्फारफणालको लभुजगे मृत्य्वन्धकूपाकुले,
भ्रान्त्वा तत्र चिरं तवास्ति कुशलं किं भेद बोधं बिना।।6। हे चित्त! जिसमें तृष्णा रूपी उत्कट दावाग्नि धधक रही है, जहाँ काम और क्रोध रूपी प्रचण्ड सिंहों का समूह है, जो परिग्रह और अष्टमद रूपी अष्टापदों से युक्त है, जहाँ क्रूर विशाल अजगर, सूकर और सर्प हैं तथा जहाँ मृत्यु रूपी अन्धकूप विद्यमान हैं ऐसे विशाल संसार रूपी वन में चिरकाल भ्रमण कर भेद विज्ञान के बिना क्या तेरी कुशलता हो सकती है, (अर्थात् कभी नहीं हो सकती, भोगों से विरक्त होकर ही तू अपना कल्याण कर सकता है अन्यथा नहीं) समाधिसार में सोमसेनाचार्य लिखते हैं कि
देहोऽपरोऽपरश्चात्मा यस्येति चिन्तनं क्षणम्।
जन्ममृत्युजरातीतं स एव पदमश्नुते॥52॥ शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है ऐसा चिन्तन क्षणभर के लिए भी जिसके होता है, वही जन्म, जरा, मृत्यु से रहित पद को प्राप्त होता है।
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