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चाचा, जो की जौहरी था, के पास ले गया और बोला चाचाजी मेरे ये हीरे बिकवा दीजिए। चाचा ने कहा बेटे! अभी बाजार में ग्राहक नहीं हैं इनका सही मूल्य नहीं मिल पावेगा इन्हें वापस तिजोरी में रख दो और मेरे पास दुकान पर बैठा करो जिस दिन बाजार में ग्राहक होगा माल सही दामों पर बिक जावेगा। लड़का रोजाना दुकान पर बैठने लगा। धीरे-धीर उसको रत्नों की परख आने लगी। जब चाचा ने देखा कि अब इसको परख करनी अच्छी तरह आ गई है तब कहा कि आज बाजार में ग्राहक हैं जाओ, उन हीरों को ले आओ। वह घर आया और तिजोरी में से हीरे निकाले और वापस रख दिये कि मैं भी कितना मूर्ख हूँ काँच को हीरा समझ बैठा और खाली हाथ बाहर आ गया तब चाचा ने पूछा क्या हुआ, लाये नहीं! लड़के ने कहा, चाचाजी मैं गलती पर था वे तो काँच के टुकड़े हैं, हीरे नहीं। तात्पर्य यह है कि जब तक वस्तु की ठीक-ठीक जानकारी नहीं होती तब तक वह अज्ञानी है।
पं. बनारसी दास जी के उपर्युक्त दोहे से स्पष्ट हो जाता है कि स्वयं अर्थात् अपनी आत्मा तथा 'पर' अर्थात् अपनी आत्मा के अलावा समस्त अन्य आत्माएं एवं अन्य द्रव्य सब अलग-अलग प्रतीत होने लगते हैं। जीवों की क्या स्थिति बनती है वह संसार-शरीर भोगों से स्वतः ही उदासीन हो जाता है तथा अपने सच्चे सुख का अनुभव करने लगता है। इसका नाम आत्मज्ञान है, भेद विज्ञान है और स्व-पर भेद ज्ञान है इस आत्मज्ञान द्वारा ही संसारी जीव मोक्ष को प्राप्त होता है। संसार के दुखों से छूटता है, मुक्त होता है। स्व और पर को जानने के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है बिना पुरुषार्थ स्व-पर भेद ज्ञान का होना असंभव है जैसा कि निम्न दृष्टान्त में दर्शाया गया है
मैं पड़ा हूँ एक बाबूजी कमरे को सजा रहे थे। कमरे में जो वस्तु जहाँ रखनी है, हर जगह उसको लिख रहे थे। जब सभी जगह लिख दिया तब एक पलंग पर खुद सो रहे थे वहाँ पर लिख दिया “मैं पड़ा हूँ"। अब बाबू जी सुबह उठकर देखते है कि जो वस्तु जहाँ पर रखी थी वह वहीं है केवल पलंग पर 'मैं' नहीं है। बाबूजी परेशान हो गये ढूढ़ते-ढूढ़ते दोपहर हो गई लेकिन 'मैं' नहीं मिला। तब एक नौकर आया और उसने पूछा बाबूजी। खाने में देर हो गई है क्या कारण है, बाबूजी बोले कमरे में सभी वस्तुएं मौजूद हैं परन्तु 'मैं' नहीं है। तब नौकर पूछता है कि मैं कहाँ पर रखा था, पलंग पर, बाबूजी बोले। नौकर बोला- जब आपने लिखा था तब कौन सो रहा था, मैं सो रहा था, बाबू जी बोले। नौकर ने कहा पलंग पर सोयें तब आपको 'मैं' मिल जायेगा और बाबूजी के पलंग पर लेटते ही तुरन्त समाधान हो गया। इसलिए बिना पुरुषार्थ किये स्व की प्राप्ति होना असंभव है।
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