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________________ सम्यग्ज्ञान का तीसरा सोपान : स्व-पर भेव ज्ञान भेदविज्ञान अर्थात् आत्मज्ञान ही कल्याणकारी है, अन्य सभी ज्ञान मिथ्याज्ञान हैं और संसार को बढ़ाने वाले हैं। आचार्य अमृतचन्द स्वामी कलश 131 में लिखते हैं कि भेद विज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल केचन्। अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन्॥ जो भी जीव आज तक बंधे हैं वे सभी बिना भेद विज्ञान से बंधे हैं, जितने भी आज तक छूटे हैं वे सभी भेद-विज्ञान से ही छूटे हैं। भेद विज्ञान जग्यो जिनके घर, शीतल चित्त भयो जिमि चन्दन, केलि करें शिवमार्ग में, जग माँहि जिनेश्वर को लघु नन्दन। सत्य स्वरूप सदा जिनहीं के प्रकट्यो अवदात मिथ्यात्व निकन्दन, शान्त दशा तिन ही की पहिचानी, करें कर जोरी बनारसी वंदन।। जिनके हृदय में निज-पर का विवेक प्रकट हुआ है, जिनका चित्त चन्दन के समान शीतल है अर्थात् कषायों का आताप नहीं है, जो निज पर विवेक होने से मोक्षमार्ग में मौज करते हैं, जो संसार में अरहन्त देव के लघु पुत्र हैं अर्थात् थोड़े ही काल में अरहन्त पद प्राप्त करने वाले हैं, जिन्हें मिथ्यादर्शन नष्ट करके निर्बल सम्यग्ज्ञान प्रकट हुआ है। उन सम्यग्दृष्टि जीवों को आनन्दमय अवस्था का निश्चय करके पं. बनारसी दास हाथ जोड़कर बोलते हैं -सम्यग्ज्ञान हो जाने के बाद संसार शरीर भोगों से विरक्त हो जाता है। बहुत मानव यह कहते हैं कि भोग खूब भोगी लेकिन ज्ञान प्राप्त करो। अमृत व जहर एक जगह नहीं रह सकते। अमृत व जहर का विरोध है जैसे कि कहा गया है ज्ञान कला जिनके घट जागी, ते जग माहिं सहज बैरागी। ग्यानी मगन विषै सुख माही, यह विपरीति संभवै नाही॥ जिनके चित्त में सम्यग्ज्ञान की किरण प्रकाशित हुई है वे संसार में स्वभाव से ही वीतरागी रहते हैं ज्ञानी होकर विषय-सुख में आसक्त हो, यह उल्टी रीति असम्भव है। अगर कोई कहे कि ज्ञानी विषय-भोगों में मग्न रहें तो ऐसा नहीं हो सकता। ज्ञानी को भोग बुरे दिखने लगते हैं। इन सब बातों को जानकर सच्चा ज्ञान प्राप्त करो मगर बिना ज्ञान के काँच को हीरा, पीतल सोना और भोगों को सच्चा सुख ही मानने लगे तो यह सब तुम्हारा मिथ्या ज्ञान ही है। एक नगर में एक जौहरी रहता था उसका पुत्र अज्ञानी था उस जौहरी की मृत्यु हो जाती है। लड़के को काम धन्धा तो आता नहीं था उसने तिजोरी खोलकर हीरे निकाले और अपने - 179
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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