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पापा जीव के शुभ भावों को भावपुण्य और अशुभ भावों को भावपाप कहते हैं तथा कर्म की पुण्य प्रकृतियों को द्रव्यपुण्य और पाप प्रकृतियों को द्रव्यपाप कहते हैं। सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं तथा असाता वेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम नीच गोत्र तथा घातिया कर्म ये सब पाप प्रकृतियाँ हैं।
अत: जब तक जीव अपनी पहचान नहीं कर लेता तब तक उस का कल्याण होने वाला नहीं है। संसार में भटकना अपनी पहचान हो जाने के उपरान्त ही छूट सकता है। जीव को अपनी पहचान सम्यग्ज्ञान से ही हो सकती है
सब व्योहार क्रिया का ज्ञान, भयो अनन्ती बार प्रधान। निपट कठिन अपनी पहचान ताको पावत होत कल्याण।। निम्न दृष्टान्तों द्वारा हम स्पष्ट कर सकते हैं -
दृष्टान्त- 1. एक इंजीनियर जिसने अपना आधे से ज्यादा जीवन पढ़ने में बिता दिया हो यदि उसको मशीन ठीक करने के लिए खड़ा कर दिया जाय तो वह मशीन ठीक नहीं कर सकता
और एक बिना पढ़ा-लिखा मिस्त्री भले ही वह किसी को कुछ ना पढ़ा सके परन्तु मशीन तुरन्त ठीक कर देगा क्योंकि इंजीनियर का ज्ञान शब्दात्मक है और मिस्त्री का ज्ञान अनुभवात्मक है। इंजीनियर को मशीन संबंधी ज्ञान अस्पष्ट है और मिस्त्री को स्पष्ट है। भवन योजना कोई भी बना सकता है परन्तु भवन निर्माण वही कर सकता है जिसको भवन बनाने का अनुभव हो।।
दृष्टान्त-2. एक दिन एक पढ़ा लिखा युवक नदी के किनारे सैर करने गया। वहाँ वह नाव में बैठकर नदी की सैर करने लगा। सैर करते हुए उसने नाविक से पूछा भईया, कितने पढ़े-लिखे हो, नाविक बोला मुझे श्री बाबूजी अ, आ, इ, ई भी नहीं आती। तब बाबूजी बोलेअरे नालायक! कुछ भी नहीं जानता। तेरे जैसे अनपढ़ लोगों के कारण ही तो भारत बरबाद है। वह नाविक सुनता रहा। संयोग की बात है कि तब तक नाव बीच नदी में पहुँच चुकी थी। हवा तेज चलने लगी जिसके कारण नाव डगमगाने लगी तब नाविक पूछता है कि बाबूजी तैरना आता है, बाबूजी बोले भईया, मुझे तो नहीं आता। नाविक बोला अरे बेवकूफ! तेरे जैसे लोगों का जीवन बेकार है जिसने सब कुछ सीखा परन्तु जीवन की कला नहीं सीखी। नाव बेकाबू होने लगी तब नाविक बोला बाबू जी मैं तो तैर कर वापस चला जाऊँगा परन्तु तुम सोचो क्या करोगे? इसलिए बन्धुओं, जब तक यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त करोंगे जीवन नहीं बचा पाओगे. व्यर्थ चला जावेगा।
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