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________________ यही बात अन्य रूप से आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने द्रव्यसंग्रह की 28वीं गाथा में इस प्रकार कही है आसव-बंधण- संवर- णिज्जर- मोक्खो सपुण्ण- पावा जे । जीवाजीवविसेसा, ते वि समासेण पभणामो ॥ पुण्यपाप, आम्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात पदार्थ भी जीव अजीव के ही विशेष भेद हैं अर्थात् जीव और अजीव द्रव्य में छहों द्रव्य, सातों तत्त्व और नौ पदार्थ शामिल हैं। सात तत्त्वों का स्वरूप सम्यग्दर्शन के चौथे सोपान में स्पष्ट किया जा चुका है। उनमें पुण्य (अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करे) तथा पाप (अर्थात् जो आत्मा का पतन करे) को मिला देने से नौ पदार्थ हो जाते हैं। उदाहरणार्थ जीव पदार्थ (आत्म पदार्थ) का यथार्थ स्वरूप निम्न सवैये से भी होता है राग विरोध उदै जबलों तबलों, यह जीव मृषा मग धावे । ग्यान जग्यौ जब चेतन कौ तब, कर्म दसा पर रूप कहावै ॥ कर्म विलक्षण करै अनुभौ तहां, मोह मिथ्यात्व प्रवेस न पावै । मोह गये उपजै सुख केवल, सिद्ध भयो जग मांहि न आवै॥ जब तक इस जीव को मिथ्या ज्ञान का उदय रहता है तब तक वह राग-द्वेष में वर्तता है । पर जब उसे ज्ञान का उदय हो जाता है तब वह कर्म परिणति को अपने से भिन्न गिनता है और जब कर्म परिणति तथा आत्म परिणति का पृथक्करण करके आत्म-अनुभव करता है, तब मिथ्या मोहनीय को स्थान नहीं मिलता और मोह के पूर्णतया नष्ट होने पर केवल ज्ञान तथा अनन्त सुख प्रगट होता है जिससे सिद्ध गति की प्राप्ति होती है और फिर जन्म-मरण रूप संसार में नहीं आना पड़ता। यह सम्यग्ज्ञान की महिमा है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान से आत्मा की सिद्धि होती है। पुण्य और पाप का वर्णन आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने द्रव्यसंग्रह में इस प्रकार किया है सुह- असुह-भाव- जुत्तो, पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा । सादं सुहाउ णामं, गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥ ३८ ॥ पुण्य के दो भेद हैं- भावपुण्य और द्रव्यपुण्य पाप के दो भेद हैं- भावपाप और द्रव्य 176
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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