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________________ आकाश में गमन का निमित्त होता है, शिक्षा, उपदेश, जप-तप आदि का नहीं इसी प्रकार नारकी और देव की पर्याय में उत्पत्ति मात्र से अवधि ज्ञान प्राप्त होता है। यह अवधिज्ञान देव, नारकी तथा तीर्थङ्करों को (गृहस्थ अवस्था में) होता है। यह नियम से देशावधि होता है तथा समस्त प्रदेश से उत्पन्न होता है। (घ) मन:पर्यय ज्ञान - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव मर्यादा पूर्वक जो दूसरे के मन में स्थित सभी पदार्थों को स्पष्ट जानता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है । (1) ऋजुमति ( 2 ) विपुलमति । ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान- जो पर के मन में स्थित सरल सीधी बात को जानता है वह ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान है। विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान- जो पर के कुटिल मन में स्थित, अर्द्ध चिन्तित भविष्य में विचारी जाने वाली, भूतकाल में विचारी गई आदि बातों को जानता है, वह विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान है। (ङ) केवलज्ञान - त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। इस के भेद नहीं होते। एक जीव को एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के 30वें सूत्र में लिखा है किएकादीनिभाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ।। एक जीव में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। यदि एक हो तो केवलज्ञान, दो हों तो मति व श्रुतज्ञान, तीन हों तो मति श्रुत व अवधिज्ञान अथवा मन:पर्यय ज्ञान, चार हों तो मति श्रुत, अवधि तथा मनः पर्यय ज्ञान हैं। किसी भी जीव को एक साथ पाँच ज्ञान नहीं होते। छः द्रव्यों और पाँच सम्यग्ज्ञान का संक्षिप्त स्वरूप जानने के उपरान्त नव पदार्थों को सरलता से जाना जा सकता है। नयचक्र बृहद् में आचार्य देव कहते हैं कि जीवाइसत तच्चं पण्णतं जे जहत्थ रूवेण । तं चेव णव पयत्था स पुण्ण पावा पुणों होंति ॥ जीवादि सप्त तत्त्वों को यथार्थ रूप से कहा गया है उन्हीं में पुण्य और पाप मिला देने पर नौ पदार्थ बन जाते हैं। 175
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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