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सम्यग्ज्ञान कितने प्रकार का होता है यह भी ज्ञान होना अपेक्षित है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि
मतिश्रुतावधिमन:पर्य यके वलानि ज्ञानम्॥ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान हैं। इनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्न प्रकार है__ (क) मतिज्ञान- पाँचों इन्द्रियों और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। यह चार प्रकार का होता है- (1) अवग्रह (2) ईहा (3) अवाय और (4) धारणा। 1. अवग्रह- विषय विषयी के सन्निपात के अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है उसे अवग्रह
मतिज्ञान कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह। अ. व्यंजनावग्रह- अस्पष्ट अर्थ के ग्रहण करने को व्यंजनावग्रह मतिज्ञान कहते हैं। जैसे
कर्ण इन्द्रिय में एक इल्की सी आवाज का मामूली सा आभास हो कर रह गया। ब. अर्थावग्रह- स्पष्ट अर्थ के ग्रहण करने को अर्थावग्रह मतिज्ञान कहते हैं। 2. ईहा ज्ञान- अवग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष जानने की इच्छा के होने को ईहाज्ञान
कहते हैं 3. अवाय ज्ञान- विशेष चिह्न देखने से जिसका निश्चय हो जाय उसे अवाय ज्ञान कहते है। 4. धारणा ज्ञान- अवाय से निर्णीत पदार्थ को कालान्तर में न भूलना धारणा ज्ञान है। (ख) श्रुतज्ञान- मतिज्ञान पूर्वक होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। (ग) अवधि ज्ञान- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा पूर्वक जो रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता
है उसे अवधि ज्ञान कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है। (1) गुणप्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तक) (2) भवप्रत्यय।
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान- किसी विशेष पर्याय की अपेक्षा न करके जीव के पुरुषार्थ द्वारा जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह गुणप्रत्यय कहलाता है इसको क्षयोपशम निमित्तक भी कहते हैं। यह मुनष्य तथा तिर्यंचों के होता है। इसके छह भेद हैं। अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित अथवा इनके तीन भेद देशावधि, परमावधि, और सर्वावधि रूप भी किये जाते हैं। यह नाभि के ऊपर शंख,
पद्म, वज, स्वस्तिक, कलश, मछली आदि शुभ चिह्नों के द्वारा होता है। 2. भवप्रत्यय अवधिज्ञान- देव और नारक पर्याय धारण करने पर जीव को जो अवधि
ज्ञान उत्पन्न होता है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है। जैसे पक्षियों में जन्म
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