SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिखा था कि दोनों को फाँसी दे दी जाय। उस राजा ने दोनों को फाँसी का हुक्म सुना दिया। सेठ बहुत दुःखी हुआ और गुणवान के आगे रोने लगा कि गुणवान कुछ कर और फाँसी से बचा, तब गुणवान बोला तुम्हारा दोहा ही तुझे बचायेगा परन्तु सेठ बहुत रोया गिडगिडाया । तब गुणवान बोला अब आराम करो कल देखेंगे परन्तु सेठ तो रात भर बैचेन रहा। अगले दिन राजा ने फाँसी के लिए दोनों को बुलाया तब विद्वान् बोला हे राजन! जल्दी फाँसी लगाओ। भाई जल्दी क्या है। राजा ने पूछा, तब विद्वान् बोला, हे राजन् ! एक निमित्त ज्ञानी ने हमारे राजा को बताया था कि इन दोनों को जहाँ फाँसी दी जायेगी वह राज्य समाप्त हो जायेगा । हमारा राजा बहुत होशियार उसने सोचा कि दोनों को भले ही फांसी लग जाय पर तुम्हारा राज्य समाप्त हो जावेगा। इसलिए उसने दोनों को तुम्हारे पास भेज दिया। हमें जल्दी फाँसी लगाओ तब राजा ने दोनों को चले जाने को कहा गुणवान ने जाने से इंकार कर दिया। जब बार-बार कहने पर भी दोनों वहाँ से नहीं गये तब राजा ने दोनों को कुछ धन व एक-एक घोड़ा देकर विदा किया। इस प्रकार गुणवान के ज्ञान से दोनों की जान बच गयी। धनवान ने वह श्लोक भी मिटाया और गुणवान का बहुत सम्मान भी किया इसीलिए कहा जाता है विद्वान की सब जगह पूजा होती है। शास्त्र परम्परा का प्रारम्भ अब प्रश्न यह उठता है कि शास्त्र की उत्पति कब और कैसे हुई? - भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के बाद गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य और जम्बू स्वामी तीन अनुबद्ध केवली हुए । तदुपरान्त पांच श्रुत केवली हुए। धीरे-धीरे ज्ञान कम होता चला गया। भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के 683 वर्ष बाद आचार्य धरसेन क्षीण अंगधारी हुए तब तक सम्पूर्ण श्रुत मौखिक रहा। आचार्य धरसेन को चिन्ता हुई कि इस प्रकार तो श्रुत का लोप हो जायेगा तब उन्होंने दक्षिण से दो शिष्य बुलाए। एक रात्रि में धरसेन आचार्य को स्वप्न में दो सफेद बैल मुख में प्रवेश करते दिखाई दिए। तब उन्होंने समझ लिया कि दोनों शिष्य पहुँचने वाले हैं। दोनों शिष्यों के पहुँचने पर उनकी परीक्षा हेतु दोनों को दो मंत्र सिद्ध करने के लिए दिए। मंत्रों को सिद्ध करने पर एक को कानी और दूसरे को दाँत बाहर निकली देवी दिखाई दी। तब दोनों ने विचार किया कि देवियाँ तो कुरुप होती नहीं इसलिए मंत्रों में कुछ कमी है उन्होंने मन्त्रों को ठीक किया और आचार्य धरसेन को सुनाया। इस प्रकार धरसेन आचार्य को विश्वास हो गया कि शिष्य ज्ञानी हैं और उन्हें शिक्षा देनी प्रारम्भ की। दोनों शिष्यों ने शिक्षा प्राप्त करके श्रुत को लिपिबद्ध करना शुरु किया, जो ज्येष्ठ सुदी पंचमी को पूर्ण हुआ । श्रुत का नाम षट्खण्डागम रखा गया जिसको प्रथम श्रुतस्कन्ध कहा गया। आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की टीका धवला, जयधवला, महाध वला के नाम से की। महाधवला का कुछ अंश आचार्य गुणभद्र स्वामी ने पूरा किया। आज इनके 171
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy