SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायग्रंथ इस अनुयोग से सम्बन्धित हैं, जिनके माध्यम से हमें यह पता चलता है "यह ऐसा ही है" अर्थात् सात तत्त्व, नौ पदार्थ, छह द्रव्यों आदि का क्या स्वरूप है। इन शास्त्रों का हमें बहुत गम्भीरता से अध्ययन करना चाहिए। द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय, समयसार, नियमसार आदि अनेक शास्त्रों में इनका वर्णन विस्तृत रूप से किया गया है। आत्मद्रव्य आदि को समझने के लिए यही शास्त्र उपयोगी हैं। श्री गुणभद्रसूरि कहते हैं कि अनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते। वचः पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते॥ समुत्तुंगे सम्यक् प्रततमतिमूले प्रतिदिन। श्रुतस्कन्धे धीमान् मनोमर्कटभुम।। -आत्मानुशासन, 170 जो स्कन्धरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनों रूपी पत्तों से व्याप्त है, विस्तृत नयों रूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञान रूपी जड़ से स्थिर है उस श्रुतस्कन्ध रूप वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान् साधुओं को अपने मन रूपी बन्दर को प्रतिदिन रमाना चाहिए अर्थात् चंचल मन को विषयों की ओर से खींचकर इस श्रुत के अभ्यास में लगाने से रागद्वेष की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। इससे संवर पूर्वक कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष सुख की वृष्टि होती है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के नवमें अध्याय में स्वाध्याय के पाँच प्रकार बताये हैं1. वाचना 2. पृच्छना 3. अनुप्रेक्षा 4. आम्नाय 5. धर्मोपदेश वाचना:- ग्रन्थ, अर्थ या दोनों का निर्दोष भव्य जीवों को श्रवण करना वाचना है। पृच्छनाः- संशय को दूर करने के लिए अथवा निश्चय को दृढ़ करने के लिए प्रश्न पूछना पृच्छना है। अनुप्रेक्षा:- जाने हुए पदार्थों का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। आम्नाय:- निर्दोष उच्चारण करके पाठ को पढ़ना आम्नाय है। धर्मोपदेशः- धर्म का उपदेश करना धर्मोपदेश है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार में ग्रंथों की वाचना के पाँच प्रकार बताये हैं 1. शब्दार्थ 2. नयार्थ 3. मतार्थ 4. आगमार्थ 5. भावार्थ। 1. शब्दार्थ- शब्दार्थ को व्याख्यान रूप से शब्दार्थ जानना। 169
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy