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________________ पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण, और सभी कथानक शास्त्र प्रथमानुयोग के अन्तर्गत हैं। इन सभी शास्त्रों को हमें पढ़ना चाहिए। प्रथमानुयोग एक ऐसा दर्पण है ऐसी कसौटी है जिसके द्वारा भटके हुए संसारी जीव को यह पता चलता है कि सूर्य के प्रकाश व जुगनू के प्रकाश, स्वर्ण की चमक और पीतल की चमक में क्या अन्तर है, प्रथमानुयोग उस भटके हुए संसारी जीव के लिए दीपक का काम भी करता है जैसे दीपक अंधकार दूर करके मार्ग दर्शाता है। निम्न सवैया द्रष्टव्य है कैसे कर केतकी कनेर एक कहि जाय, आक दूध गाय दूध अन्तर घनेरे हैं। पीरो होत रीरी पैन रीस करे कंचन की, कहाँ काग वाणी कहाँ कोयल की टेर है। कहाँ मान मारो कहाँ अंगिया विचारो, कहाँ पूजा को उजारो कहाँ मावस अंधेरी है। पक्ष तज पारखी ने कर लेक नी के कर, जैन बैन और बैन इतनो ही फेर है। केतकी और कनेर किस प्रकार एक कहे जा सकते हैं, आक का दूध और गाय के दूध में बहुत अन्तर होता है। पीतल पीली होती है परन्तु स्वर्ण की बराबरी नहीं कर सकती। कहाँ तो कौवे की वाणी और कहाँ कोयल की कुहूक, कहाँ सूर्य का प्रकाश और कहाँ जूगनू का प्रकाश, कहाँ पूर्णिमा का उजियाला कहाँ अमावस का काला अन्धेरा, हे परखने वाले पारखी! पक्ष छोड़कर ध्यान से देख जैन वचन और अन्य मत के वचनों में इतना ही अन्तर है। करणानुयोग का लक्षण लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च। आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च॥ -रत्नकरण्ड 44 जिसमें छह द्रव्यों का समूह रूप लोक एवं केवल आकाश द्रव्य अपने गुण पर्यायों सहित प्रतिबिम्बत हो रहे हैं; छहों कालों के निमित्त से पुद्गलों की जैसी पर्यायें हैं, वे सब प्रतिबिम्बित होकर झलक रहीं हैं; चारों गतियों का स्वरूप जिसमें प्रकट झलकता है वह दर्पण के समान करणानुयोग हैं। यह संख्याओं से संबंधित गणित शास्त्र है। इसमें हमें तीन लोक, गुणस्थान-मार्गणाओं, बीस प्ररूपणाओं आदि का ज्ञान मिलता है। इस अनुयोग के शास्त्रों के पढ़ने से हमें यह शिक्षा मिलती 3 % D 167
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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