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________________ के ज्ञान को सम्यक्प कहा है। मिथ्यादृष्टि को मूल पदार्थों का वास्तविक ज्ञान नहीं है, इसलिए जितने उत्तर पदार्थ जानने में आते हैं, उन सबको भी अयथार्थ रूप से साधता है, अतः मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को मिथ्यारूप कहा गया है। सम्यग्ज्ञानी का महत्त्व राणाकोसौ बाना लीनै आपा साथै थाना चीन, दानाअंगो नानारंगी खाना जंगी जोधा है। मायाबोली जेती वेती रे" मैं धारेती रोती फंदा ही कौ कंदा खोदे खेती कौसौ लोधा है। बाधा सेती हांता लोरै राधा सेती, तांता जोरें, बांदी सेती नाना तोरै वादीकोसौ सोधा है। जानै जाही बाही नीकै मानै राही पाही पीकै, दानै बातें हाही ऐसौ धारावाही बोधा है। भेदविज्ञानी ज्ञाता, राजा जैसा रूप बनाये हुए है। वह अपने आत्मरूप स्वदेश की रक्षा के लिए परिणामों को संभाल कर रखता है और आत्मसत्ता भूमिरूप स्थान को पहिचानता है, प्रशम, संवेग, अनुकंपा आदि की सेना सम्हालने में दाना अर्थात् प्रवीण होता है, साम, दाम, दंड और भेद आदि नीतियों में कुशल राजा के समान है, तप, समिति, तृप्ति, परीषहजय, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि अनेक रंग धारण करता है और कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने में बड़ा बहादर होता है। मायारूपी जितना लोहा है, उन सबको चूर-चूर करने में रेती के समान है, कर्म के फंदेरूप बांस को जड़ से उखाड़ने के लिए किसान के समान है, कर्मबंध के दुखों से बचाने वाला है, सुमति राधिका से प्रीति जोड़ता है, कुमति रूप दासी से संबंध तोड़ता है, आत्मपदार्थ रूप चांदी को ग्रहण करने और पर पदार्थ रूप धूल को छोड़ने में रजत-सोधा (सुनार) के समान है, पदार्थ को जैसा जानता है वैसा ही मानता है। भाव यह है कि हेय को हेय जानता और हेय मानता है। उपादेय को उपादेय जानता और उपादेय मानता है; ऐसी उत्तम बातों का आराधक धाराप्रवाही ज्ञाता है। 165
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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