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सम्यग्ज्ञान का लक्षण -
कर्तव्यो ऽध्यवसायसदने कान्तात्मेषु तत्त्वेषु । संशयविपयीनध्यवसायविविक्तमात्मरूपं तत् ॥
प्रशस्त अनेकान्तात्मक अर्थात् अनेक स्वभाव वाले तत्त्वों तथा पदार्थों में निर्णय करने योग्य और वह सम्यग्ज्ञान, संशय, विपर्यय और विमोह रहित आत्मा का निज स्वरूप है।
पदार्थ के स्वरूप को यथार्थ जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है वह पदार्थ अनेकान्त स्वभाव को धारण करता है। अनेक का अर्थ बहुत एवं अन्त का अर्थ धर्म होता है। इस प्रकार अपने अनन्त धर्म स्वभाव को धारण करने वाले का ज्ञान अवश्य करना चाहिए। जो सम्यक्प्रकार से वस्तु को पहचान लेता है वह करोड़ों कारण मिलने पर भी अश्रद्धानी नहीं होता। 'तत् आत्मरूप वर्तते यह सम्यग्ज्ञान आत्मा का स्वरूप है, क्योंकि जो यह सच्चा ज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह केवलज्ञान में मिलकर शाश्वत रहेगा। कैसा है ज्ञान ? संशयविपर्ययानध्यवसायविविक्तम्' संशय, विपर्यय और विमोह इन तीनों भावों से रहित है।
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संशय:- विरुद्ध दो तरफा ज्ञान को संशय ज्ञान कहते हैं। जैसे रात में किसी को देखते संदेह हुआ कि यह पदार्थ मनुष्य जैसा भी प्रतिभासित होता है और व्यन्तर जैसा भी प्रतिभासित होता है।
विपर्ययः - अन्यथा (विपरीत) रूप एकतरफा ज्ञान को विपर्ययज्ञान कहते हैं। जैसे मनुष्य में व्यन्तर की प्रतीति कर लेना ।
अनध्यवसायः - "कुछ है" इतना ही जानना हो, विशेष विचार न करे उसे अनध्यवसाय (विमोह) कहते हैं। जैसे गमन करते समय तृण के स्पर्श का ज्ञान होना। इन तीनों भावों से रहित यथार्थज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यहाँ घटपटादि पदार्थों के विशेष जानने के निमित्त उद्यमी रहना नहीं बताया, अपितु संसार-मोक्ष के कारण भूत पदार्थों को यथार्थ जानने के लिए उद्यमी रहने का उपदेश दिया है।
प्रश्न:- सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के ज्ञान में समानता होने पर भी एक का ज्ञान सम्यक् और दूसरे का मिथ्या क्यों कहलाता है?
उत्तर:- सम्यग्दृष्टि को मूलभूत जीवादि पदार्थों का वास्तविक ज्ञान है इसलिए जितने उत्तर पदार्थ (विशेष पदार्थ) जानने में आते हैं उन सब को यथार्थ रूप से साधता है, अतः सम्यग्दृष्टि
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