________________
हैं। जैसे "गच्छतीति गौः" के अनुसार जो चले वही गौ होती है, परन्तु यहाँ बैठी हुई को भी गौ कह देते हैं।
4. एवंभूतनय:- जो वर्तमान क्रिया जैसी हो उसी के अनुसार वैसा ही कहना एवंभूतनय है। जैसे चलती हुई को गौ कहना, सोती हुयी, बैठी हुयी को गौ न कहना। इस प्रकार नय के भेद जानना चाहिए।
इनमें शब्दनय, समभिरुढ़नय तथा एवंभूतनय को शब्द नय कहते हैं। इस प्रमाण नय के संयोग को युक्ति कहते हैं। "नयप्रमाणाभ्यां युक्ति इति वचनात्।" यहाँ पर प्रमाण नय का थोड़ा सा कथन इसलिए कर दिया है कि प्रमाण-नय बिना पदार्थ के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होता।
"प्रमाणनयैरधिगमः" त• सू-1/16 जिस समय आत्मा को सम्यग्दर्शन होता है उस समय मति और श्रुतज्ञान तो अवश्य होता ही है परन्तु इस सम्यग्ज्ञान की विशेष रूप से पृथक आराधना करना योग्य है। किसलिए? यतः लक्षण भेदेन अनयोः नानात्वं संभवति।' कारण कि लक्षण भेद से इन दोनों में भिन्नत्व सम्भव है। सम्यक्त्व का लक्षण यथार्थ श्रद्धान है और इसका (ज्ञान का) लक्षण यथार्थ जानना है इस लिए इसे पृथक कहा है। आगे सम्यक्त्व के पश्चात् ज्ञान कहने का कारण बताते है
सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वकारणं वदन्ति जिनाः।
सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात्॥ जिनेन्द्र देव सम्यग्ज्ञान को कार्य और सम्यक्त्व को कारण कहते हैं इसलिए सम्यक्त्व के बाद तुरन्त ही ज्ञान की आराधना योग्य है।
मतिज्ञान-श्रुतज्ञान पदार्थ को तो जानते थे, परन्तु सम्यक्त्व के बिना उनकी संज्ञा कुमतिज्ञान और कुश्रुत ज्ञान थी, परन्तु सम्यकपना तो सम्यक्त्व से ही हुआ। इसलिए सम्यक्त्व तो कारण रूप है, सम्यक्त्व कार्य रूप है 'तस्मात् सम्यक्त्वानन्तरं ज्ञानाराधनं इष्टम्' इसलिए सम्यक्त्व के बाद ही ज्ञानाराधना योग्य है, क्योंकि कारण से ही कार्य होता है।
प्रश्न-कारण-कार्य तो तब कहा जाये जब आगे-पीछे हो (ये तो दोनों युगपत् हैं फिर इनमें कारण कार्यत्व किस तरह संभव है) इसका उत्तर आगे कहते हैं
कारणकार्य विधानं समकालं जायमानयोरपि हि।
दीपप्रकाशयोरिति सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम्॥ निश्चय से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों एक समय में उत्पन्न होने पर भी दीपक और प्रकाश की तरह कारण और कार्य की विधि भली प्रकार घटित होती है।
-
163
=