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________________ सप्तम अध्याय : सम्यग्ज्ञान जिन्होंने सम्यक्त्व का आश्रय लिया है ऐसे आत्म हितकर पुरुषों को सदैव जिनागम की परम्परा और युक्ति अर्थात् प्रमाणनय के अनुयोग से विचार करके प्रयत्न पूर्वक सम्यग्ज्ञान का भली प्रकार से सेवन करना योग्य है, सम्यग्दर्शन के साथ उत्पन्न होने पर भी सम्यग्ज्ञान की पृथक आराधना करना कल्याण कारी है, कारण कि इन दोनों में अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में लक्षण के भेद से भिन्नता संभव है। जो पदार्थ का स्वरूप जिनागम की परम्परा से मिलता हो उसको प्रमाण और नय से अपने उपयोग में ठीक करके यथावत् जानने को ही सम्यग्ज्ञान का सेवन करना कहा जाता है। उस प्रमाण - नय का स्वरूप किंचिन्मात्र बताते हैं। प्रमाण का स्वरूप और भेद प्रमाण सम्यग्ज्ञान को कहते हैं। वह प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है। प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं- जो ज्ञान केवल आत्मा के ही आधीन होकर अपने विषय प्रमाण विशदता से स्पष्ट जाने, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। उसके भी दो भेद हैं अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान तो एकदेश प्रत्यक्ष है और केवलज्ञान सर्वदेश प्रत्यक्ष है तथा जो नेत्रादि इन्द्रियों द्वारा वर्णादिक को साक्षात् ग्रहण करें अर्थात् जाने उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। परमार्थ से यह जानना परोक्ष ही है; कारण कि स्पष्ट जानना नहीं है। उसका उदाहरण- जैसे आँख से किसी वस्तु को सफेद जाना उसमें मलिनता का भी मिश्रण है। अमुक अंश श्वेत है और अमुक मलिन है ऐसा उसे स्पष्ट प्रतिभासित नहीं होता, अतः यह व्यवहार मात्र प्रत्यक्ष है, पर आचार्य इसे परोक्ष ही कहते हैं। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान से जो जानना होता है वह सब परोक्ष कहलाता है। परोक्ष प्रमाण- जो ज्ञान अपने विषय को स्पष्ट न जाने, उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं। स्मृति प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आगम ये पाँच भेद जानना । 1. स्मृतिः- पूर्व में जिस पदार्थ को जाना या उसे ही याद करते कालान्तर में जान लेने को स्मृति कहते हैं। 2. प्रत्यभिज्ञान:- जैसे पहले किसी पुरुष को देखा था फिर बाद में याद किया कि यह तो वही पुरुष है, जिसे मैंने पहले देखा था। जो पहले की बात याद करके प्रत्यक्ष पदार्थ का निश्चय करे उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे पहले यह सुना था कि नीलगाय नामक गाय जैसा होता है। वहाँ कदाचित् वन में नीलगाय को देखा, तो यह याद आ गई कि जैसी नीलगाय होती है ऐसा पहले सुना था, वह नील गाय पशु यही है। 161
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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