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________________ बालक का पुत्र जैसा लालन पालन वहाँ होने लगा। भाग्यवान जीवों को कोई न कोई निमित्त 'अवश्य मिलता है। वज्रकुमार के युवा होने पर पवनवेगा नामक अत्यन्त सुन्दर विद्याधरी के साथ उनकी शादी हुई। अपने बल पर उसने अनेक राजाओं को जीत लिया। कुछ समय पश्चात् दिवाकर राजा की पत्नि के पुत्र हुआ। अपने इसी पुत्र को राज्य मिले- ऐसी इच्छा से उस स्त्री को वज्रकुमार के प्रति द्वेष होने लगा। एक बार तो वह यहाँ तक कह गई। अरे! यह किसका पुत्र है? जो यहाँ आकर हमें परेशान कर रहा है। इस बात को सुनते ही वज्रकुमार का मन उदास हो गया। उसे ज्ञात हुआ कि उसके माता पिता कोई और हैं तब विद्याधर राजा से उसने सम्पूर्ण वास्तविकता जान ली, तब उसे ज्ञात हुआ कि उसके पिता दीक्षा लेकर मुनि हो गये हैं। तुरन्त ही वह विमान में बैठकर मुनिराज की खोज में निकल पड़ा। कुछ समय पश्चात् जब वज्रकुमार का विमान एक पर्वत के ऊपर से जा रहा था तो उसने पर्वत की चोटी पर एक मुनिराज को ध्यान-साधना करते हुये देखा । उसने अपना विमान वहाँ उतारा तो देखता है कि वे सोमदत्त मुनिराज ही हैं। ध्यान में विराजमान सोमदत्त मुनिराज को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। वज्रकुमार ने परम भक्ति से मुनिराज को वन्दन किया और कहा “हे पूज्य देव! मैं इस दुःख रूप संसार से घबराया हूँ। मैं जान गया हूँ कि इस संसार में आ के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं है। मैं सच्चे सुख की प्राप्ति करना चाहता हूँ। इसलिए आप मुझे मुनि दीक्षा दीजिए। सोमदत्त मुनि ने उसे दीक्षा न लेने के लिए बहुत समझाया परन्तु वज्रकुमार ने अपना दृढ़ निश्चय किया था। उसे देखकर और उसे निकट भव्य जानकर मुनिराज ने उसे मुनि दीक्षा दे दी। हुए निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु बनकर वे आत्मा के ज्ञान-ध्यान में रहने लगे। धर्म की प्रभावना करते वे देश-विदेश में विहार करने निकले। एक बार उनके प्रताप से मथुरा नगरी में धर्म प्रभावना का एक अनोखा प्रसंग बना । मथुरा नगरी में एक गरीब अनाथ लड़की जूठन खाकर पेट भरती थी। उसे देखकर एक अवधिज्ञानी मुनि बोले- "देखो कर्म की विचित्रता । यह लड़की कुछ वर्षों पश्चात् राजा की पटरानी बनेगी। मुनि की यह बात एक बौद्ध भिक्षुक ने सुनी और वे उसे अपने मठ में ले गये । इस लड़की का नाम बुद्धदासी रखकर वहीं उसका लालन पालन होने लगा। उसे बौद्धधर्म के संस्कार मिले। आगे चलकर जब वह युवा हुई। तब उसका अत्यन्त सुन्दर रूप देखकर राजा 159
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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