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इस प्रकार विष्णुकुमार मुनि ने बलि आदि का उद्धार किया और सात सौ मुनियों की रक्षा
की।
चारों और जैनधर्म की जय जयकार गूँजने लगी। तत्काल हिंसक यज्ञ बन्द हो गया और मुनिवरों का उपसर्ग दूर हुआ। हजारों श्रावक परम भक्ति से सात सौ मुनिवरों की वैय्यावृति करने लगे। विष्णुकुमार ने स्वयं वहाँ जाकर मुनिवरों की वैय्यावृत्ति की और मुनिवरों ने भी विष्णुकुमार के वात्सल्य की प्रशंसा की।
उपसर्ग दूर होने पर मुनिसंघ आहार के लिए हस्तिनापुर नगरी में पहुँचा। हजारों श्रावको ने अतिशय भक्ति पूर्वक मुनियों को आहार दान दिया। उसके बाद उन श्रावकों ने स्वयं भोजन किया। देखो ! श्रावकों का भी धर्म प्रेम धन्य है, धन्य है वे साधु ।
जिस दिन यह घटना घटी उस दिन श्रावण शुक्ला पूर्णिमा का दिन था विष्णुकुमार मुनिराज महान् वात्सल्य पूर्वक सात सौ मुनियों की तथा धर्म की रक्षा हुई। अतः वह दिन रक्षापर्व नाम से प्रसिद्ध हुआ, यह पर्व रक्षाबन्धन के नाम से आज भी मनाया जाता है।
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मुनि रक्षा का अपना काम पूरा होने पर वामन पण्डित का वेष छोड़कर विष्णुकुमार ने फिर से मुनि दीक्षा लेकर मुनिधर्म धारण किया और ध्यान से अपने आत्मा को शुद्ध रत्नत्रय धर्म के साथ अभेद करके ऐसा वात्सल्य प्रगट किया कि अल्पकाल में ही उन्होंने केवलज्ञान प्रगट करके मोक्ष पद पाया।
सम्यक्त्व का आठवां अंग ( प्रभावना )
समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं:
विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणे यव्वो ।1236 सद्ज्ञान रथ आरूढ हो जो भ्रमे मनरथ मार्ग में । वे प्रभारक जिनमार्ग के सद्दृष्टि उनको जानना ।।
जो (चेतयिता) विद्या रूपी रथ पर आरूढ हुआ। [ चढ़ा हुआ] रथ के पथ में [ज्ञान रूपी रथ के चलने के मार्ग में] भ्रमण करता है वह जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समंतभद्र कहते हैं:
अज्ञानतिमिर व्याति- मपाकृत्य यथायथं । जिनशासनमाहात्म्य - प्रकाशः स्यात्प्रभावना॥18॥
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