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वे तुरन्त हस्तिनापुर आ पहुँचे और अपने भाई को- जो हस्तिनापुर के राजा थे, उनसे कहा - "अरे भाई! तेरे राज्य में यह कैसा अनर्थ? पद्मराय ने कहा- प्रभो! मैं लाचार हूँ, अभी राज सत्ता मेरे हाथ में नहीं है।"
उनसे सम्पूर्ण बात जानकर विष्णुकुमार मुनि ने सात सौ मुनियों की रक्षा हेतु अपना मुनित्व थोड़ी देर के लिए छोड़कर, एक बौने ब्राह्मण पण्डित का रूप धारण किया और बलि राजा के पास आकर अत्यंत मधुर स्वर में उत्तमोत्तम श्लोक बोलने लगे। बलि राजा उस वामन पण्डित का दिव्य रूप देखकर और मधुर वाणी सुनकर मुग्ध हो गया। "आपने पधार कर यज्ञ की शोभा बढ़ाई, ऐसा कहकर बलि राजा ने पण्डित का सम्मान किया और इच्छित वर मांगने को कहा। ___ अहो, अयाचक मुनिराज! जगत के नाथ!! वे आज स्वयं सात सौ मुनियों की रक्षा करने के लिये याचक बने! ऐसा है धर्म वात्सल्य!!
मूर्ख राजा को कहाँ मालूम था कि जिन्हें मैं याचना करने के लिए कह रहा हूँ वे ही हमारे अर्थात् धर्म के दातार हैं और हिंसा के घोर पाप से मेरा उद्धार करने वाले हैं। ___उस ब्राह्मण वेषधारी विष्णुकुमार मुनि ने राजा से वचन लेकर तीन पग जमीन मांगी। राजा ने खुशी से वह जमीन नाप कर लेने को कहा।
बस हो गया! विष्णुकुमार का काम। विष्णुकुमार ने विराट रूप धारण किया। विष्णु का यह विराट रूप देखकर राजा तो चकित हो गया। उसे समझ ही नहीं आया कि यह क्या हो रहा है। विराट स्वरूप विष्णुकुमार ने एक पग सुमेरु पर्वत पर और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखकर बलिराजा से कहा- अब तीसरा पग कहाँ रखू। तीसरा पग रखने की जगह दे, अन्यथा सिर पर पग रख कर तुझे पाताल में उतार दूंगा। ___मुनिराज की ऐसी विक्रिया होने से चारों ओर खलबली मच गई सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मानो कॉप उठा। देवों और मनुष्यों ने आकर विष्णुकुमार मुनिराज की स्तुति की और विक्रिया समेटने के लिए प्रार्थना की। बलि राजा आदि चारों मन्त्री मुनिराज के पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगे, प्रभो! क्षमा करो। हमने आपको पहचाना नहीं।" ___विष्णुकुमार मुनिराज ने क्षमाभाव पूर्वक उन्हें अहिंसा धर्म का स्वरूप समझाया तथा जैन मुनियों की वीतरागता की महिमा समझायी और आत्मा के हित का परम उपदेश दिया। उसे सुनकर उनका हृदय परिवर्तन हुआ और स्वयं क्षमा माँग कर उन्होंने आत्मा के हित का मार्ग अंगीकार किया। विष्णुकुमार की विक्रियालब्धि बलि आदि की धर्म-प्राप्ति का कारण बन गई। उन जीवों ने अपना परिणाम एक क्षण में पलट दिया। अरे। ऐसे शान्त वीतरागी मुनियों के ऊपर हमने इतना घोर उपसर्ग किया - धिक्कार है। ऐसे पश्चाताप पूर्वक उन्होंने जैनधर्म धारण किया।
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