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________________ % 3D ___ अन्त में उन पापियों ने सभी मुनियों को जान से मारने की एक दुष्ट योजना बनाई। राजा से जो वरदान माँगना शेष था वह उन्होंने माँग लिया। उन्होंने कहा “महाराज हमें एक बहुत बड़ा यज्ञ करना है। इसलिए सात दिन के लिए आप अपना राज्य हमें सौंप दें। अपने वचन का पालन करके राजा ने उन्हें सात दिन के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं राजमहल में जाकर रहने लगे। बस राज्य हाथ में आते ही उन दुष्ट मन्त्रियों ने “नरबलियज्ञ" करने की घोषणा की और जहाँ मुनि विराजे थे, वहाँ चारों ओर से हिंसा के लिए पशु और दुर्गन्धित हड्डियाँ माँस, चमड़ी तथा लकड़ी के ढेर लगा दिये और उन्हें सुलगाने के लिए बड़ी आग जला दी। मुनियों के चारों ओर अग्नि की ज्वाला भड़की। मुनिवरों पर घोर उपसर्ग हुआ। लेकिन ये तो मोक्ष के साधक वीतरागी मुनि भगवन्त! अग्नि की ज्वाला के बीच में भी वे मुनिराज तो शान्ति से आत्मा के वीतरागी अमृतरस का पान करते रहे बाहर में भले ही अग्नि भड़की, परन्तु अपने अन्तर में उन्होंने क्रोधाग्नि जरा भी भड़कने नहीं दी। अग्नि की ज्वालायें धीरे-धीरे बढ़ने लगी। लोगों में चारों ओर हाहाकार मच गया। हस्तिनापुर के जेनसंघ को अपार चिन्ता होने लगी, मुनिवरों का उपसर्ग जब तक दूर नहीं होगा तब तक सभी श्रावकों ने खाना पीना त्याग दिया। ____ अरे मोक्ष को साधने वाले सात सौ मुनियों के ऊपर ऐसा घोर उपसर्ग देखकर भूमि भी फट गई, आकाश में श्रवण नक्षत्र मानों काँप रहा हो। यह सब एक क्षुल्लकजी ने देखा और उनके मुहँ से चीत्कार निकली। आचार्य महाराज ने भी निमित्त ज्ञान से जानकर कहा अरे। वहाँ हस्तिनापुर में सात सौ मुनियों के संघ के ऊपर बलि राजा घोर उपसर्ग कर रहा है और उन मुनिवरों का जीवन संकट में है। क्षुल्लक जी ने पूछा - प्रभो इनको बचाने का कोई उपाय? ____ आचार्य ने कहा-हाँ विष्णुकुमार मुनि उनका उपसर्ग दूर कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें ऐसी विक्रिया प्रकट हुई है, जिससे वे अपने शरीर का आकार जितना छोटा या बड़ा करना चाहें, उतना कर सकते हैं, परन्तु वे तो अपनी आत्मा में लीन हैं उन्हें अपनी लब्धि की खबर ही नहीं है और मुनियों के ऊपर आये उपसर्ग की भी खबर नहीं है।" यह सुनकर क्षुल्लक जी के मन में उपसर्ग दूर करने हेतु विष्णुकुमार मुनि जी की सहायता लेने की बात आई। आचार्यश्री की आज्ञा लेकर वे क्षुल्लक जी तुरन्त ही विष्णुकुमार मुनि के पास आए, और उन्हें सम्पूर्ण वृतान्त बताकर प्रार्थना की- “हे नाथ! आप विक्रियालब्धि से यह उपसर्ग तुरन्त दूर करें। ___ यह बात सुनते ही विष्णुकुमार मुनि के अन्तरंग में सात सौ मुनियों के प्रति परम वात्सल्य उमड़ पडा। विक्रियालब्धि को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने अपना हाथ लम्बा किया तो मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त सम्पूर्ण मनुष्य लोक से वह लम्बा हो गया। 155
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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