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________________ राजा ने मुनिवरों को वन्दन किया, परन्तु ज्ञान ध्यान में तल्लीन मुनिवर तो मौन ही थे। उन मुनियों की ऐसी शान्ति और निस्पृहता देख कर राजा बहुत प्रभावित हुए परन्तु मन्त्री दुष्ट भाव से कहने लगे- "महाराज। इन जैन मुनियों को कोई ज्ञान नहीं है। इसलिए ये मौन रहने का ढोंग कर रहे हैं, क्योंकि 'मौनं मूर्खस्य लक्षणम्'। ___इस प्रकार निन्दा करते हुऐ वे वापस जा रहे थे उसी समय श्री श्रुतसागर नाम के मुनि सामने से आ रहे थे उन्होंने मन्त्रियों की बात सुनी। मुनिसंघ की निन्दा उन्हें सहन नहीं हुई। इसलिए उन्होंने उन मन्त्रियों के साथ वाद-विवाद किया। रत्नत्रय धारक श्रुतसागर मुनिराज ने अनेकान्त सिद्धान्त के न्याय से मन्त्रियों की कुयुक्तियों का खण्डन करके उन्हें चुप करा दिया। दूसरों की मौनी कहकर खिल्ली उड़ाने वाले खुद मौन की साधना करने लगे। इस प्रकार राजा की उपस्थिति में हार जाने से मन्त्रियों को अपना अपमान लगा। अपमान से क्रोधित होकर वे पापी मन्त्री रात्रि में मुनिराज को मारने के लिये गये। उन्होंने ध्यान में खड़े मुनिराज के ऊपर तलवार उठाकर जैसे मारने का प्रयत्न किया, वैसे ही अकस्मात उनका हाथ खड़ा ही रह गया और पैर भी जमीन से चिपक गये। सुबह होने पर लोगों ने यह दृश्य देखा और राजा को चारों ही मन्त्रियों की दुष्टता की खबर मिली। तब राजा ने उनको गधे पर बैठाकर नगर के बाहर निकाल दिया। युद्ध कला में कुशल ऐसे वे बलि आदि मन्त्री भटकते-भटकते हस्तिनापुर नगरी पहुंचे और वहाँ के राजा के मन्त्री बनकर रहने लगे। ___ हस्तिनापुर भगवान शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ-इन तीन तीर्थंकरों की जन्मभूमि है। यह कहानी जिस समय घटी, उस समय हस्तिनापुर में राजा पद्मराय राज्य करते थे। उनके एक भाई मुनि हो गये थे- उनका नाम था विष्णुकुमार। वे आत्मा के ज्ञान-ध्यान में मग्न रहते। उन्हें कुछ लब्धियाँ भी प्रगट हुई थी परन्तु उनका उस पर ध्यान नहीं था, उनका ध्यान तो आत्मा की केवलज्ञानलब्धि साधने पर था। सिंहरथ नाम का एक राजा, इस हस्तिनापुर के राजा का शत्रु था और उन्हें बारबार परेशान करता रहता था। पद्मराय उसे अभी तक जीत नहीं सका था। अन्त में बलि मन्त्री की यक्ति से पद्मराय ने उसे जीत लिया। इसलिए खुश होकर राजा ने बलि को मुँह माँगा वरदान माँगने को कहा परन्तु बलि मन्त्री ने कहा- "हे राजन! जब आवश्यकता पड़ेगी तब यह वरदान माँग लूँगा।" इधर अकम्पन आदि सात सौ मुनि भी देश विदेश विहार करते हुए और भव्य जीवों को वीतराग धर्म समझाते हुए हस्तिनापुर नगरी पहुँचे। वहाँ अकम्पन इत्यादि मुनिवरों को देखकर बलि मन्त्री भय से काँप उठा- उसको डर लगा कि इन मुनियों के कारण हमारा उज्जैन का पाप अगर प्रगट हो गया तो यहाँ से भी राजा हमारा अपमान करके निकाल देगा। क्रोधित होकर अपने वैर का बदला लेने के लिए वे चारों मन्त्री विचार करने लगे। 154
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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