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________________ सम्यक्त्व का सातवाँ अंग (वात्सल्य ) समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं: जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि । सो वच्छल भावजुदो सम्मादिट्ठी मुणे यव्वो । द्यार्थ मुक्ति भगत साधुत्रय प्रति रखें वात्सल्य भाव जो। वे आत्मा वत्सली सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ।। जो ( चेतयिता) मोक्षमार्ग में स्थित सम्यग्दर्शन - ज्ञ‍ - ज्ञान चारित्र रूपी तीन साधकों [आचार्य-उपाध्याय-साधु] साधनों के प्रति वात्सल्य करता है। उसे वात्सल्य भाव सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । आगे आचार्य समंतभद्र कहते हैं: युक्त स्वयूथ्यान्प्रति सदभाव - सनाथपे तकै तवा । प्रतिपत्ति- र्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥ - रत्नक०, 17 अपने साधर्मियों के प्रति सरलता सहित माया रहित, योग्य आदर सत्कार आदि करना वात्सल्य अंग कहलाता है। मुनिश्री विष्णुकुमार की कहानी प्रकट रही जो श्रेष्ठ भाव से यथायोग्य आदर सत्कार | करना अपने सधर्मियों का, सप्तमांग " वात्सल्य " विचार || इसे पालकर प्रसिद्धि पाई मुनिवर श्रीयुत "विष्णुकुमार " । जिनका यश शास्त्रों के भीतर, गाया निर्मल अपरम्पार ॥ लाखों वर्ष पहले भगवान श्री मुनिसुव्रत नाथ के तीर्थ के समय की यह कहानी है। उज्जैन नगरी में उस समय राजा श्रीवर्मा राज्य करता था, उनके बलि इत्यादि चार मन्त्री थे। वे नास्तिक थे, उन्हें धर्म पर श्रद्धा नहीं थी। एक बार उस उज्जैन नगरी में सात मुनियों के संघ सहित आचार्य श्री अकम्पन का आगमन हुआ। सभी नगरजन हर्ष से मुनिवरों के दर्शन करने गये। राजा भी मन्त्रियों आदि के साथ दर्शन करने गये । यद्यपि इन बलि आदि मिथ्यादृष्टि मन्त्रियों की जैन मुनियों पर श्रद्धा नहीं थी, फिर भी राजा की आज्ञा से वे भी साथ में गये। 153
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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