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मुनि उनकी स्थिति समझ गये उनके हृदय मे मित्र के प्रति धर्म-वात्सल्य जागा और किसी भी तरह उनको धर्म में स्थिर करना चाहिए ऐसा विचार करके उनके साथ चलने लगे।
मित्र सहित मुनि बने राजकुमार को राजमहल की ओर आते हुए देखकर चेलना रानी को आश्चर्य हुआ क्या वारिषेण मुनिदशा का पालन नहीं कर सके, इसलिए लौटकर आ रहे हैं? ऐसा उन्हें सन्देह हुआ। उनकी परीक्षा के लिए उन्होंने एक लकड़ी का आसन और दूसरा सोने का आसन रख दिया। परन्तु वैरागी वारिषेण मुनि तो वैराग्य पूर्वक लकड़ी के आसन पर ही बैठे, इससे चतुर चलना रानी समझ गई कि राजकुमार का मन तो वैराग्य में दृढ़ है, अतः उनके आगमन में दूसरा ही कोई हेतु होना चाहिए ।
वारिषेण मुनि के आते ही उनके गृहस्थाश्रम की बत्तीस रानियाँ भी दर्शन के लिए आयीं। राजमहल के अद्भुत वैभव और अत्यन्त सुन्दर उन रूप-यौवनाओं को देखकर पुष्पडाल को आश्चर्य हुआ। वे मन ही मन में सोचने लगे - अरे! ऐसा राग-वैभव और ऐसी 32 रानियाँ होने पर भी यह राजकुमार उनके सामने भी नहीं आता, उनको छोड़ने के बाद उन्हें याद भी नहीं करता और आत्मा को ही साधने में यह अपना चित्त लगाये रखता है। वाह, धन्य है यह! और मैं तो एक साधारण स्त्री का मोह भी मन से छोड़ नहीं सका। अरे रे! बारह वर्ष का मेरा साधु पद बेकार चला गया। तब वारिषेण मुनि ने पुष्पडाल से कहा- हे मित्र अब भी यदि तुम्हें संसार का मोह हो तो तू यही रह जा। इस सारे वैभव को भोग। अनादि काल से जिस संसार के भोगने पर भी तृप्ति नहीं हुई, उसे अब भी तू भोगना चाहता है तो ले यह सब तू भोग। " वारिषेण की बात सुनकर पुष्पडाल मुनि अत्यन्त शर्मिन्दा हुए, उनके आँखें खुल गई, उनकी आत्मा जागृत हो गई।
राजमाता चेलना भी अब सब कुछ समझ गई, और धर्म में स्थिर करने के लिए उन्होंने पुष्पडाल से कहा - अहो मुनिराज ! आत्मा के धर्म को साधने का ऐसा अवसर बारबार नहीं मिलता। इसलिए अपना चित्त मोक्षमार्ग में लगाओ। यह संसार तो अनन्त बार भोग चुके हो, उसमें किचित् भी सुख नहीं है- इसलिए उससे ममत्व छोड़कर मुनिधर्म में अपना चित्त स्थिर करो। "
वारिषेण मुनिराज ने भी ज्ञान वैराग्य का बहुत उपदेश दिया और कहा हे मित्र, अब अपना चित्त आत्मा की आराधना में स्थिर कर और मेरे साथ मोक्षमार्ग में चल। तब पुष्पडाल ने सच्चे हृदय से कहा- प्रभो! आपने मुझे जिनधर्म से पतित होने से बचा लिया है और सच्चा उपदेश देकर मुझे मोक्षमार्ग में स्थिर किया है। सच्चे मित्र आप ही हो! आपने धर्म में मेरा स्थितिकरण करके महान उपकार किया है। अब मेरा मन इस संसार से और इन भोगों से सच में उदासीन हो गया है और आत्मा के रत्नत्रय धर्म आराधना में स्थिर हो गया है। स्वप्न में भी इस संसार की इच्छा नहीं रही, अब तो अन्तर में लीन आत्मा के चैतन्य-वैभव को साधूँगा ।
इस प्रकार पश्चाताप करके पुष्पडाल फिर मुनिधर्म में स्थिर हो गये और दोनों मुनिवर वन की ओर चल दिये।
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