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रत्नत्रय स्वयं शुद्ध-निर्दोष है, यदि रत्नत्रय स्वरूप उस मोक्षमार्ग में अज्ञानी और असमर्थ पुरुषों के द्वारा कोई निन्दा आदि दोष लगाया जाय तो उसका निराकरण करना उपगूहन अंग है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं:
धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुिणार्थम्॥
उपगूहन नामक गुण के लिए [ उपगूहन का अर्थ छिपाना है।] मार्दव, क्षमा, सन्तोष भावनाओं से निरन्तर अपने आत्मा के धर्म की अर्थात् शुद्ध स्वभाव की वृद्धि करना चाहिए और दूसरों के दोषों को गुप्त भी रखना चाहिए।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रंथ में आचार्य कार्तिकेय कहते हैं:
जो परदोस गोवदि, णियसुकयं जो ण पयडदे लोए । भवियव्वभावणरओ, उवगूहणकारओ सो हु॥ १९ ॥
जो सम्यग्दृष्टि दूसरे के दोषों को छिपाता है। अपने सुकृत (पुण्य) को लोक में प्रकाशित नहीं करता फिरता है, ऐसी भावनाओं में लीन रहता है कि जो भवितव्य है वही होता है तथा होगा वह उपगूहन गुण करने वाला है।
[ जिन भक्त सेठ की कहानी ]
स्वयं शुद्ध जो सत्यमार्ग है, उत्तम सुख देने वाला। अज्ञानी असमर्थ मनुज-कृत, उसकी हो निन्दा माला || उसे तोड़कर दूर फेंकना, 'उपगूहन' हैं पंचम अंग ।
इसे पाल निर्मल यश पाया, सेठ 'जिनेन्द्र भक्त' सुख अंग ||
पादलिप्त नगर में एक सेठ रहता था, वह महान जिनभक्त था, सम्यक्त्व का धारक था और धर्मात्माओं के गुणों की वृद्धि तथा दोषों का उपगूहन करने के लिए प्रसिद्ध था । पुण्य-प्रताप से वह बहुत वैभव-सम्पन्न था उसका सात मंजिल का महल था वहाँ सबसे ऊपर के भाग में उसने एक अद्भुत चैत्यालय बनाया था। उसमें बहुमूल्य रत्न से बनाई हुई भगवान पार्श्वनाथ की मनोहर मूर्ति थी, उसके ऊपर रत्न जड़ित तीन छत्र थे, उनमें एक नीलम रत्न बहुत ही कीमती था जो अन्धेरे में भी जगमगाता था ।
उस समय सौराष्ट्र के पाटलीपुत्र नगर का राजकुमार सुवीर कुसंगति में दुराचारी तथा चोर हो गया था वह एक बार सेठ के जिनमंदिर में गया वहाँ उसका मन ललचाया- भगवान की भक्ति के कारण नहीं, बल्कि कीमती नीलम रत्न की चोरी के भाव से ।
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