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अहो ! मुनिराज के आशीर्वाद की बात सुनते ही रेवती रानी को अपार हर्ष हुआ। हर्ष से गद्गद होकर उन्होंने यह आशीर्वाद स्वीकार किया और जिस दिशा में मुनिराज विराजित थे, उस तरफ सात पाँव चलकर परम भक्ति से मस्तक नवाँ कर उन मुनिराज को परोक्ष नमस्कार किया।
विद्याधर राजा ने रेवती माता का बहुत सम्मान किया और उनकी प्रशंसा करके सम्पूर्ण मथुरा नगरी में उनकी महिमा फैला दी। राजमाता की ऐसी दृढ़ श्रद्धा और जिनमार्ग की ऐसी महिमा देखकर मथुरा नगरी के कितने ही जीव कुमार्ग छोड़कर जिनधर्म के भक्त बन गये और बहुत से जीवों की श्रद्धा दृढ़ हो गई। इस प्रकार जैनधर्म की महान प्रभावना हुई।
यह कहानी हमें यह बताती है कि वीतराग परमात्मा अरहन्त देव का सच्चा स्वरूप पहचान कर उनके अलावा अन्य दूसरे किसी भी देव को - भले ही साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु, शंकर दिखाई दें- नमस्कार नहीं करें। जिनवचन के विरुद्ध किसी बात को नहीं माने। भले सारा जगत् कुछ भी माने और तुम अकेले पड़ जाओ तो भी जिनधर्म की श्रद्धा नहीं छोड़ना चाहिए। सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं की देव-गुरु-धर्म के प्रति मूढ़ता नहीं होती उन्हें वीतरागी देव, निर्ग्रन्थ गुरु एवं दयामय धर्म का यथार्थ निर्णय होता है।
सम्यक्त्व का पाँचवा अंग [ उपगूहन ]
समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं :
यथार्थ:
जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगूहणो दु सव्वधम्माणं । सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ।1233
जो सिद्ध भक्ति युक्त हैं सब धर्म का गोपन करें। वे आत्मा गोपन करी सद्दृष्टि हैं यह जानना ॥
जो जीव सिद्धों की शुद्धात्मा की शक्ति से युक्त हैं और पर वस्तुओं के सर्व धर्मों को गोपने वाला है अर्थात् रागादि पर भावों से युक्त नहीं होता उसको को उपगूहन करने वाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
रत्नकरण्ड श्रा० में आचार्य संमतभद्र कहते है:
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति,
तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥
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