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________________ गुप्ताचार्य नाम के महान मुनिराज विराजमान थे विशेष ज्ञान के धारक थे और मोक्ष मार्ग का उत्तम उपदेश देते थे। चन्द्र राजा ने कुछ दिन वहाँ मुनिराज का उपदेश सुनकर और भक्ति पूर्वक उनकी सेवा की। तत्पश्चात् उन्होंने मथुरा नगरी की यात्रा पर जाकर विचार किया, क्योंकि वहाँ से जम्मू स्वामी ने मोक्ष पाया था और वर्तमान में वहाँ अनेक मुनिराज विराजमान थे उनमें भव्यसेन नाम के एक मुनिराज बहुत ही प्रसिद्ध थे वहाँ वरूण राजा भी राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम था रेवती । चन्द्र राजा ने मथुरा जाने की अपनी इच्छा गुप्ताचार्य के सामने प्रगट की और आज्ञा माँगी तथा वहाँ विद्यमान संघ के लिए कोई सन्देश देने के सम्बन्ध में पूछा। 64 उस पर श्री आचार्य देव के सम्यक्त्व की दृढ़ता का उपदेश देते हुए कहा - 'आत्मा का सच्चा स्वरूप समझने वाला जीव वीतराग अरहन्त देव के अतिरिक्त किसी को भी देव नहीं मानता है। मथुरा की राजरानी रेवती देवी भी सम्यक्त्व की धारक है। जिनधर्म की श्रद्धा में वह बहुत ही दृढ़ है, उन्हें धर्म वृद्धि का आशीर्वाद कहना तथा वहाँ विराजमान मुनि को, जिनका चित्त रत्नत्रय में रत है उन्हें वात्सल्य पूर्वक नमस्कार कहना । इस प्रकार आचार्य देव ने मुनिराज को तथा रेवतीरानी के लिए सन्देश कहा, परन्तु भव्यसेन मुनि को याद भी नहीं किया इस पर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ फिर भी आचार्य महाराज को याद दिलाने के उद्देश्य से पूछा 'क्या और अन्य किसी को कुछ कहना है। परन्तु आचार्यदेव ने इस पर विशेष कुछ नहीं कहा इससे चन्द्र राजा को ऐसा लगा कि क्या आचार्य देव भव्यसेन मुनि को भूल गये हैं। नहीं। नहीं, वे तो भूलेंगे नहीं वे तो विशेष ज्ञान के धारक हैं। इसलिए उनकी इस आज्ञा में अवश्य कोई रहस्य होगा। जो होगा वह प्रत्यक्ष दिखेगा। 'मन ही मन में ऐसा समाधान करके चन्द्र राजा आचार्य देव के चरणों में नमस्कार किया और वे मथुरा की तरफ निकल पड़े मथुरा में आते ही प्रथम उन्होंने मुनिराज के दर्शन किये, वे बहुत ही शान्त और शुद्ध रत्नत्रय के पालन करने वाले थे। चन्द्र राजा ने उन्हें नमोऽस्तु किया और उन्हें गुप्ताचार्य का सन्देश कहा चन्द्र राजा की बात सुनकर मुनिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की और स्वयं भी विनय पूर्वक हाथ जोड़कर श्री गुप्ताचार्य के प्रति परोक्ष नमस्कार किया। मुनिवरों का एक दूसरे के प्रति ऐसा वात्सल्य भाव देख कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। मुनिराज ने कहा हे वत्स ! धर्म शोभता है। धन्य है, उन रत्नत्रय के धारक आचार्य देव को जिन्होंने इतनी दूर वात्सल्य से साधर्मी के रूप में मुझे याद किया शास्त्र में सच ही कहा है। ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं भव्या धर्मानुरागतः । साधर्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले ॥ ? 143
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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