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________________ अर्थः- अहो | जो भव्यजीव धर्म से प्रीति होने के कारण साधर्मी जनों के प्रति वात्सल्य करते हैं। उनका जन्म जगत में सफल है। प्रसन्नचित भावपूर्वक बारम्बार मुनिराज को नमस्कार करके राजा वहाँ से निकले और भव्यसेन मुनिराज के पास आये उन्हें बहुत शास्त्रज्ञान था वे बहुत प्रसिद्ध थे। राजा उनके साथ थोडे समय रहे । परन्तु उन मुनिराज ने न तो आचार्य संघ का कोई समाचार पूछा और न कोई उत्तम धर्मचर्चा की। मुनि के योग्य आचार-व्यवहार ही उनका नहीं था। यद्यपि वे शास्त्र पढ़ते थे फिर भी शास्त्रानुसार उनका आचरण नहीं था। मुनि को नहीं करने योग्य प्रवृति वे करते थे । यह सब अपनी आँखों से देखकर राजा की समझ में आ गया, ये भव्यसेन मुनि चाहे जितने प्रसिद्ध हों परन्तु वे सच्चे मुनि नहीं हैं। तो फिर गुप्ताचार्य उन्हें क्यों याद करेंगे सच में, उन चतुर आचार्य भगवान ने योग्य ही किया। इस प्रकार चन्द्र राजा ने सुरत मुनि और भव्यसेन मुनि की स्वयं आँखों से देखकर परीक्षा की। रेवती रानी को भी आचार्य महाराज ने धर्मवृद्धि का आशीर्वाद कहा। इसलिए इनकी भी परीक्षा करनी चाहिए ऐसा राजा के मन में विचार आया। अगले दिन मथुरा नगरी के उद्यान में अकस्मात् साक्षात् ब्रह्मा प्रगट हुये। इस सृष्टि के साक्षात् ब्रह्माजी पृथ्वी पर आये है। वे कह रहें है मैं इस सृष्टि का कर्ता हूँ और दर्शन देने के लिए आया हूँ। यह बात नगरजनों में फैल गयी नगरजनों की टोलिया उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ी और उन्हें गाँव लाने की चर्चा हुई मूढ़ लोगों का तो क्या कहना बहुत लोग इन ब्रह्माजी के दर्शन करने आये । प्रसिद्ध भव्यसेन मुनि कौतुहल वश उस जगह आये और नहीं रेवती रानी उस जगह गयी । जैसे ही राजा ने साक्षात् ब्रहमा की बात की वैसे ही महारानी रेवती ने नि:शंक होकर कहा महाराज! कोई ब्रह्मा हो ही नहीं सकते किसी मायाचारी ने इन्द्रजाल खड़ा किया है। क्योंकि कोई ब्रह्मा या कोई इस सृष्टि का कर्ता है ही नहीं। साक्षात् ब्रह्मा तो अपना ज्ञान स्वरूप आत्मा है। अथवा भरतक्षेत्र में भगवान् ऋषभ देव ने मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया इसलिए उन्हें आदि ब्रह्मा कहते हैं। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई ब्रह्मा है ही नहीं, जिसे मैं वन्दन करूँ। दूसरे दिन मथुरा नगरी में एक अन्य दरवाजे से नागशैय्या पर विराजमान विष्णु भगवान प्रगट हुए जिन्होंने अनेक अलंकार पहने हुए थे और उनके चारों हाथों में शस्त्र थे लोगों में फिर हलचल भर गयी। लोग बिना कोई विचार किये पुनः उस तरफ भागे वे कहने लगे अहा! मथुरा नगरी का महाभाग्य खुल गया है। कल साक्षात ब्रह्मा ने दर्शन दिये और आज विष्णु भगवान पधारे हैं। राजा को ऐसा लगा कि आज तो रानी अवश्य जायेगी। इसलिए उन्होंने स्वयं रानी से बात की परन्तु रेवती जिसका नाम था, जो वीतरागदेव के शरण में ही समर्पित थी उसका मन जरा भी डिगा नहीं। श्री कृष्ण आदि नौ विष्णु, वासुदेव होते है और वे चौथे काल में हो चुके है। दसवां विष्णु 144
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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