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जो चेतयिता (जीव) समस्त भावों में अमूढ है-यथार्थ दृष्टि वाला है इसको निश्चय से अमूढ़ दृष्टि जानना चाहिए। आचार्य कार्तिकेय स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहते हैं:
भयलम्जालाहादो, हिंसारंभो ण मण्णदे धम्मो।
जो जिणवयणो लीणो, अमूढदिट्ठी हवे सो दु॥४१८॥ जो भय, लज्जा और लाभ से हिंसा के आरम्भ को धर्म नहीं मानता है और जिन बचनों में लीन है, भगवान ने धर्म अहिंसा ही कहा है जो ऐसी दृढ़ श्रद्धा युक्त है वह पुरुष अमूढदृष्टि गुण संयुक्त है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहते हैं:
लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे।
नित्यमपि तत्त्वरूचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम्॥ लोक में शास्त्राभास में [जो सच्चे शास्त्र न हों] धर्माभाष में [यथार्थ धर्म नहीं] और देवाभाष में [यर्थाथ देव नहीं], तत्त्वों में रूचिवान सम्यग्दृष्टि पुरुष को सदा ही मूढता रहित श्रद्धान करना चाहिए। आचार्य समंतभद्र कहते हैं:
कापथे पथि दुःखाना, कापथस्थेऽप्यसम्मतिः। असम्पृक्ति - रनुत्कीर्ति - रमूढा दृष्टिरुच्यते॥
- रलक०, 14 नरकादि दु:खों के देने वाले मिथ्यात्व के धारकों के विषय में मन से सम्मत नहीं होना काय से सराहना नहीं करना और वचन से प्रशंसा नहीं करना अमूढदृष्टि अंग कहलाता है।
रेवती रानी की कहानी चौथा अंग 'अमूढदृष्टि' यह जग में अतिशय सुखकारी।
इसको धार रेवती रानी ख्यात हुई जग में जारी॥ इस भरत क्षेत्र के मध्य में विजयाध पर्वत है। वहाँ विधाधर मनुष्य रहते हैं। उन विद्याधरों के राजा चन्द्रप्रभ का चित्त संसार से विरक्त हुआ, राज्य का कार्य-भार अपने पुत्र को सौंपकर वे तीर्थयात्रा करने निकल पड़े। कुछ समय वे दक्षिण देश में रहे। दक्षिण देश के प्रसिद्ध तीर्थों के और रत्नों के जिनबिम्बों का दर्शन करके उन्हें बहुत आनन्द हुआ। दक्षिण देश में उस समय
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