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अरे! लेकिन यह क्या? बहुत से लोग मुनि वेषधारी वासव देव से दूर भागने लगे। बहुतों ने तो अपने चेहरे को कपड़े से ढक लिया क्योंकि मुनि के काने-कुबड़े शरीर में भयंकर कोढ़ रोग हुआ था और उसमें से असह्य दुर्गन्ध आ रही थी, हाथ पैर से पीव पड़ रही थी।
राजा का उनके रोग पर कोई लक्ष्य नहीं था, वे तो प्रसन्न होकर परम भक्ति से एक चित्त होकर आहारदान दे रहे थे और अपने को धन्य मान रहे थे अहो। रत्नत्रय धारी मुनिराज मेरे
आंगन में आये इनकी सेवा से मेरा जीवन सफल होगा इतने में मुनि के पेट में अचानक गड़बड़ी हुई और उनको एकाएक उल्टी हो गयी वह दुर्गन्ध भरी उलटी राजा रानी के शरीर पर जा गिरी किन्तु उन्हें किंचित ग्लानि नहीं हुई और मुनिराज के प्रति जरा भी घृणा नहीं हुई। बल्कि अत्यन्त सावधानी पूर्वक वे मुनिराज के दुर्गन्धयुक्त शरीर को साफ करने लगे और उनके मन में ऐसा विचार आया अरे। रे! हमारे आहार दान में अवश्य कोई भूल हुई होगी जिस कारण मुनिराज को इतना कष्ट हुआ। मुनिराज की पूर्ण सेवा हमसे नहीं हो सकी। यहाँ तो राजा विचार कर ही रहे थे कि वे मुनि अकस्मात् अदृश्य हो गये और उनके स्थान पर एक देव दिखने लगा। अत्यन्त प्रसन्न होकर वह कहने लगा हे राजन! धन्य है आपके सम्यक्त्व को और धन्य है आपके निर्विचिकित्सा अंग का। इन्द्र ने आपके गुणों की बहुत प्रशंसा की थी। मुनि का वेष धारण करके मैं आपकी परीक्षा के लिए ही आया था धन्य है आपके गुणों को। ऐसा कहकर देव ने नमस्कार किया वास्तव में मुनिराज को कष्ट नहीं है ऐसा जानकर सबका चित्त प्रसन्न हो गया और वे कहने लगे हे देव। यह मनुष्य शरीर तो स्वभाव से ही मलिन है और रोगों का घर है। यह अचेतन शरीर मलिन हो तो भी उसमें आत्मा का क्या बिगड़ता है। धर्मी का आत्मा तो सम्यक्त्व आदि पवित्र गुणों से ही शोभित है। शरीर की मलिनता को देखकर जो धर्मात्मा के गुणों के प्रति ग्लानि करते हैं, उन्हें आत्मा की दृष्टि नहीं होती परन्तु देह की दृष्टि होती है। अरे। चमड़े के शरीर से ढका हुआ आत्मा के अन्दर सम्यक्त्वादि गुणों के प्रभाव से शोभायमान हो रहा है।
राजा उद्दायन की यह उत्तम बात सुनकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने राजा को अनेक विद्यायें दी वस्त्राभूषण दिये, परन्तु उद्दायन राजा को उनकी आकांक्षा न थी वे तो सम्पूर्ण परिग्रह छोड़कर वर्द्धमान भगवान के समवशरण में गये और दीक्षा लेकर मुनि बनकर केवलज्ञान प्राप्त करके उन्होंने मोक्ष पाया, अहो, सम्यग्दर्शन के प्रताप से वे सिद्ध हुये, उन्हें नमस्कार हो।
अमूढदृष्टि अंग समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं:
जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिद्धि सव्वभावेसु। सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो॥ सर्व भावों के प्रति सदृष्टि हैं असंमूढ हैं। अमूढदृष्टि समकितीवे आत्मा ही जानना॥
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