________________
आचार्य समंतभद्र कहते हैं:
स्वभावातोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिः मताः निर्विचिकित्सिता।
-रलक०, 13
-
स्वभाव से अपवित्र, किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र से पवित्र शरीर में ग्लानि रहित मुक्त साधक के गुणों में प्रेम करना निर्विचिकित्सिता अंग है। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं:
क्षुत्तृष्णाशीतोष्णाप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु।
द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया। भूख प्यास सर्दी गर्मी इत्यादि नाना प्रकार के भावों में और विष्टा आदि पदार्थों में ग्लानि नहीं ॥ करना चाहिए।
उद्दायन राजा की कहानी भरत क्षेत्र में अनुपम सुन्दर रत्न और मणियों से परिपूर्ण कच्छ नाम का देश है। यह देश स्वर्गपुरी जैसी शोभायुक्त है। इसी सुन्दर मनोज्ञ धनधान्य से परिपूर्ण देश में शैरपुर नाम का एक नगर था। इसमे महामण्डलीक उद्दायन नाम का राजा राज्य करता था इस सर्वगुण सम्पन्न राजा की रानी का नाम प्रभावती था।
सौधर्म स्वर्ग में देव सभा चल रही थी और इन्द्र महाराज देवों को सम्यग्दर्शन की महिमा समझा रहे थे-अहो! सम्यग्दर्शन में आत्मा का अपूर्व सुख होता हैं। इस सुख के सामने स्वर्ग के वैभव की कोई गिनती नहीं है। इस स्वर्ग लोक में साधु दशा नहीं हो सकती, परन्तु सम्यग्दर्शन की आराधना तो यहाँ पर भी हो सकती है।
जीव धन्य हैं इसलिए सम्यग्दृष्टि जीवों की हम स्वर्ग में प्रशंसा करते हैं क्योंकि सम्यग्दर्शन ही धर्म का मूल है। सम्यक्त्व के बिना धर्म प्रारम्भ नहीं होता। ऐसे सम्यक्त्व के धारक इस भरत क्षेत्र में उद्दायन राजा हैं। वे निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने में बहुत दृढ़ हैं। मुनिवरों की सेवा में वे इतने तत्पर हैं कि रोगादि भी हो तो वे जरा ग्लानि नहीं करते और बिना घृणा के परम भक्ति से धर्मात्मा की सेवा करते हैं। धन्य हैं उन्हें अहो।
राजा के गुणों की ऐसी प्रशंसा सुनकर वासव नामक एक देव के मन में उन्हें देखने की इच्छा हुई और वह स्वर्ग से उतर कर मनुष्य लोक में आया। इधर उद्दायन राजा एक मुनिराज को देखकर भक्ति पूर्वक आहार दान के लिए पड़गाह रहे है। हे स्वामी! हे स्वामी !! हे स्वामी!!! पश्चात् रानी सहित उद्दायन राजा नवधा भक्ति पूर्वक मुनिराज को आहार दान देने लगे।
140