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अनन्तमती कहती है-"पिताजी इस संसार की लीला मैंने देख ली संसार में भोग-लालसा के अलावा अन्य क्या है? इसलिए अब बस करो पिताजी इस संसार सम्बन्धी भोगों की मुझे आकांक्षा नहीं रही। मैं तो अब दीक्षा लेकर आर्यिका बनूँगी और इन धर्मात्मा आर्यिका-माता के साथ रहकर आत्मिक सख को साधंगी।"
पिताजी ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु जिसके रोम रोम में वैराग्य छा गया हो, वह इस संसार में क्यों रहे? संसार-सुखों की स्वप्न में भी इच्छा न करने वाली वह अनन्तमती नि:काक्ष भावना के दृढ़ संस्कार के बल से बन्धन को तोड़कर वीतराग धर्म की साधना में तत्पर हो गयी थी। पश्चात् उसने पद्मश्री आर्यिका के समीप दीक्षा अंगीकार कर ली और धर्मध्यान पूर्वक समाधि-धारण करके स्त्री पर्याय को छेद कर बारहवें देवलोक में महर्द्धिक देव हुई। ___ अज्ञान अवस्था में लिए हुए शील व्रत को भी जिसने दृढ़ता-पूर्वक पालन किया और स्वप्न में भी संसार सुख की तथा अन्य किसी ऋद्धि की कामना न करते हुये आत्मध्यान किया, उस अनन्तमती को देवलोक की प्राप्ति हुई। देवलोक के आश्चर्यकारी वैभव की तो क्या बात! परन्तु नि:कांक्ष को लिए हुये वहाँ पर भी उदासीन रहकर वह अनन्तमती अपना आत्महित साध रही है। धन्य है ऐसी नि:कांक्षता की! धन्य है ऐसे नि:काक्षित अंग की।
निर्विचिकित्सा अंग समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं:
जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं| सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्माविट्ठी मुणेयव्वो।1231 जो नहीं करते जुगुप्सा सब वस्तु धर्मों के प्रति।
वे आत्मा ही निर्जुगुप्सक उन्हें जानना तुम समकिती॥ आचार्य-कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहते हैं:
दहविहधम्मजुदाणं, सहावदुग्गंध असुइदेहेसु
जं जिंदणं णा कीरदि, णिव्विदिगिंछा गुणो सो हु॥ दस प्रकार के धर्म सहित मुनिराज का शरीर पहले तो जो स्वभाव से ही दुर्गन्धित और अशुचि है और स्नानादि संस्कार के अभाव से बाहर में विशेष अशुचि और दुर्गन्धित दिखाई देता है उसकी निन्दा नहीं करना सो निर्विचिकित्सा गुण है।
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