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"हे जीवो! संसार के सुख की आकांक्षा छोड़कर आत्मा के धर्म की आराधना करो। धर्म के फल में जो संसार-सुख की इच्छा करता है, वह अज्ञानी है। सम्यकत्व के या व्रत के बदले में मुझे स्वर्ग की अथवा राज्य की विभूति मिले-ऐसी जो इच्छा है, वह तो संसार सुख के बदले में सम्यक्त्वादि धर्म को बेचता है, यह तो छाछ के बदले में रत्न-चिन्तामणि को बेचने जैसी मर्खता है। अहा! स्वयं की चैतन्य-चिन्तामणि को जिसने देखा है. वह वाह्य विषयों की आकांक्षा क्यों करे? अनन्तमती के माता पिता भी मुनिराज का उपदेश सुनने के लिए आये थे और अनन्तमती को भी साथ में लाये थे। उपदेश के पश्चात् उन्होनें आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और मजाक में अनन्तमती से कहा -"तू भी ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर ले।" तब अनन्तमती ने कहा - "ठीक है, मैं भी शीलवत अंगीकार करती हैं।"
इस प्रसंग के बाद अनेक वर्ष बीत गये, अनन्तमती अब युवती हो गयी थी, उसका यौवन सोलह कलाओं के समान खिल उठा था। रूप के साथ उसके धर्म के संस्कार भी वृद्धिंगत हो गये थे। एक बार सखियों के साथ वह बगीचे में घूमने गई थी और एक झूले पर झूल रही थी। उसी समय विजयार्द्ध श्रेणी का निवासी कुंडलमंडित नाम का विद्याधर राजा अपनी पटरानी सुकेशिनी सहित क्रीड़ा करने जा रहा था। विमान में बैठे हुए उस विद्याधर राजा ने अनन्तमती के अद्भुत रूप को देखा तो वह उस पर मोहित हो गया। वह विमान में बैठी अपनी रानी से बोला- "हे प्रिये। मुझे आज अपने मित्र राजा से मिलने के लिए जाना है। इसलिए भ्रमण के लिए फिर कभी चलेगें।" और वह अपनी रानी को छोड़ आया। फिर वापिस आकर बगीचे से अनन्तमतीको विमान में उठा ले गया। उधर उसकी रानी को शंका हुयी कि पता नहीं आज हमारे पति अचानक मुझे यहाँ क्यों छोड़ गये। जब उसने विद्याबल से देखा तो उसे सब पता चला गया
और वह तुरन्त वहाँ जा पहुंची तो घबरा कर विद्याधर ने अनन्तमती को एक भयंकर वन में छोड़ दिया। ऐसे घोर वन में पड़ी हुयी अनन्तमती भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी और कहने लगी-“अरे ! इस वन में मैं कहा जाऊँ क्या करूँ? यहाँ कोई मनुष्य भी तो दिखता नहीं। थोड़ी देर पश्चात् वह पूर्व संस्कार वश पंच-परमेष्ठी भगवन्तों का स्मरण करने लगी।
दुर्भाग्य से उस वन का भील राजा शिकार करने के लिए वहाँ आया, उसने अनन्तमती को देखा और वह उस पर मोहित हो गया। उसके मन में विचार आया कि यह कोई वन देवी दिखाई देती है। ऐसी अद्भुत सुन्दरी दैवयोग से मुझे मिली है। वह उसे घर ले गया। घर पहुँच कर वह कहने लगा – “हे देवी ! मैं तुझ पर मुग्ध हो गया हूँ और मैं तुझे अपनी रानी बनाना चाहता हूँ तू मेरी आशा पूरी कर।"
निर्दोष अनन्तमती उस कामी भील राजा की बात सुनकर बहुत घबरायी पर विचारने लगी "अरे ! मैं शीलव्रत की धारक और मुझ पर यह क्या हो रहा है? पूर्व में किन्हीं गुणीजनों के
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