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सब धर्म एवं कर्म फल की ना करें आकांक्षा । वे आत्मा निकांक्ष सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।। आचार्य कार्तिकेय, कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहते हैं:
जो सग्गसुहणिमित्तं, धम्मं णायरदि दूसह तवेहिं । मोक्खं समीहमाणे, णिक्खंखा जायदे तस्स ||416॥
जो सम्यग्दृष्टि दुर्द्धर तप से भी मोक्ष की ही वांछा करता हुआ स्वर्ग सुख के लिए धर्म का आचरण नहीं करता है, उसके नि:कांक्षित गुण होता है।
आचार्य समन्तभद्र कहते हैं:
कर्म परवशे सान्ते, दःखैरत्नरितोदये । पापवीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणास्मृता ॥ 12
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
कर्मों के अधीन नश्वर दुःखों से मिश्रित और पाप के कारण इंद्रिय सम्बन्धी सुखों में अनित्य रूप श्रद्धान निकांक्षित अंग है।
आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं:
इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । एकान्तवादङ्क्षितपरसमयानपि च नाकांक्षेत् ।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
इस लोक में ऐश्वर्य, सम्पदा, आदि परलोक में चक्रवर्ती, नारायण आदि पदों को और एकान्त वादसे दूषित अन्य धर्मों को भी न चाहे ।
निकांक्षित अंग में अनन्तमती की कथा
भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में अंग नाम का देश है इस देश में मोती और पद्मराग मणियों से युक्त उन्नत शिखरबद्ध जिनचैत्यालयों के द्वारा समस्त पाप को दूर करने वाली चम्पापुरी नाम की नगरी है। इस नगरी में जिनागम रूपी समुद्र का पारगामी श्रेष्ठ वणिक वंश में उत्पन्न प्रियदत्त नाम का सेठ था इसकी रूप लावण्यवाली अंगमती नाम की भार्या थी। इन दोनों के गुणवती होनहार अनन्तमती नाम की कन्या थी वह कन्या अपने रूप गुणों से सभी के चित्त को प्रसन्न करती थी । इसका बाल्यकाल बच्चों के साथ क्रीड़ा करते हुये बीतने लगा ।
जब अनन्तमती की उम्र सात-आठ वर्ष थी तब एक बार अष्टाह्निका के समय उनके नगर में धर्मकीर्ति मुनिराज पधारे। उन्होंने सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का उपदेश दिया। निःकाक्षित गुण का उपदेश देते हुये उन्होंने कहा
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