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________________ चोर भय निवारण करने का उपाय परम रूप परतच्छ, जासु लच्छन चिन्मंडित। पर प्रवेस वहां नाहिं, माहि महि अगम अखंडित।। सो मम रूप अनूप, अकृत अनमित अटूट धन। ताहि चोर किम गहै, ठौर नहि लहै और जन।। चितवंत एम धरि ध्यान जब, तब अगुप्त भय उपसमित। ग्यानी निसंक निकलंक निज, ग्यान रूप निरखंत नित॥ आत्मा साक्षात्, परमात्मा रूप है, ज्ञान लक्षण से विभूषित है, उसकी अगम्य और नित्य भूमि में परद्रव्य का प्रवेश नहीं है। इससे मेरा धन अनुपम, स्वयं सिद्ध अपरंपार और अक्षय है, उसे चोर कैसे ले सकता है? दूसरे मनुष्य के पहुँचने को उसमें स्थान ही नहीं है। जब ऐसा चितवन किया जाता है। तब अगुप्त भय नहीं रहता। ज्ञानी लोग अपने आत्मा को सदा निष्कलंक और ज्ञानरूप देखते हैं। इससे निशक रहते हैं। अकस्मात् भय निवारण करने का उपाय सुद्ध बुद्ध अविरूद्ध, सहज सुसमृद्ध सिद्ध सम। अलख अनादि अनंत, अतुल अविचल सरूप मम॥ चिदविलास परगास, वीत-विकलप सुखधानक। जहाँ दुविधा नहि कोई होई वहां कहु न अचानक॥ जब यह विचार उपजंत तब, अकस्मात् भय नहि उदित। ग्यानी निसंक निकलंक निज, ग्यानरूप निरखंत नित॥ मेरा आत्मा शुद्ध ज्ञान तथा वीतरागभावमय है। और सिद्ध भगवान के समान समृद्धिशाली है। मेरा स्वरूप अरूपी, अनादि, अनंत, अनुपम, नित्य, चैतन्यज्योति, निर्विकल्प, आनंदकंद और निद है। उस पर कोई आकस्मिक घटना नहीं हो सकती, जब इस प्रकार का भाव उपजता है तब अकस्मात्-भय उदय नहीं होता। ज्ञानी मनुष्य अपने आत्मा को सदा निष्कलंक और ज्ञानरूप देखते हैं। इससे निःशंक रहते हैं। सम्यक्त्व का दूसरा अंग [निकांक्ष] आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं: जो दुण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु। सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्यो।।230 133
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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