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ज्ञानप्राण सयुंक्त है, वह तीन काल में कभी भी नाश होने वाला नहीं इस प्रकार जिनराज का कहा हुआ नय-प्रमाण सहित तत्त्वस्वरूप चिन्तन करने से मरण का भय नहीं उत्पन्न होता। ज्ञानी मनुष्य आत्मा को सदा निष्कलंक और ज्ञान रूप देखते हैं। इससे निःशंक रहते हैं।। वेदना के भय निवारण हेतु उपाय
वेदनवारौ जीव, जाहि वेदत सोऊ जिय। यह वेदना अभंग, सु तौ मम अंग नांहि विय॥ करम वेदना दुविध, एक सुखमय दुतीय दुःख। दोऊ मोह विकार, युगलाकार बहिरमुखा। जब तक विवेक मनमाहिं धरत, तब न वेदना भय विदित।
ग्यानी निसंक निकलंक निज, ग्यान रूप निरखंत नित। जीव ज्ञानी है और ज्ञान जीव का अभंग अंग है। मेरे ज्ञानरूप अंग में जड़ कर्मों की वेदना का प्रवेश ही नहीं हो सकता। दोनों प्रकार का सुखद रूप कर्म-अनुभव मोह का विकार है, पौद्गलिक है और आत्मा से बाह्य है। इस प्रकार का विवेक जब मन में आता है। तब वेदना-जनित भय विदित नहीं होता। ज्ञानी पुरुष अपने आत्मा को सदा निष्कलंक और ज्ञान-रूप देखते हैं। इससे नि:शंक रहते हैं। अनरक्षा का भय निवारण करने का उपाय
जो स्ववस्तु सत्तासरूप जग महिं त्रिकाल गत। तासु विनास न होई सहज निहचै प्रतान मत। सो मम आतम दरब सरवथा नहिं सहाय घर। तिहि कारन रक्षक न होई, भच्छक न कोई पर॥ जब इति प्रकार निरधार किय, तब अनरच्छा-भय नसित।
ग्यानी निसंक निकलंक निज, ज्ञान रूप निरखंत नित॥ सत्स्वरूप आत्मवस्तु जगत में सदा नित्य है, उसका कभी नाश नहीं हो सकता, यह बात निश्चयनय से निश्चय है। मेरा आत्मपदार्थ कभी किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता, इससे आत्मा का न कोई रक्षक है न भक्षक। इस प्रकार जब निश्चय हो जाता है तब अनरक्षा भय का अभाव हो जाता है। ज्ञानी लोक में अपनी आत्मा को सदा निष्कलंक और ज्ञानरूप देखते है। इससे निःशंक रहते हैं।
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