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परिग्रह प्रपंच परगट परखि, डहभव भय उपजै न चित।
ग्यानी निसंक निकलंक निज, ग्यान रूप निरखत नित। आत्मा सिर से पैर तक ज्ञानमयी है, नित्य है, शरीर आदि पर पदार्थ हैं। संसार का सब वैभव और कदम्बियों का समागम क्षणभंगुर है। जिसकी उत्पति है. उसका नाश है। जिसका संयोग है. उसका वियोग है और परिग्रह समूह जंजाल के समान है। इस प्रकार चिंतन करने से चित्त में इस भव का भय नहीं उपजता। ज्ञानी लोग अपने आत्मा को सदा निष्कलंक ज्ञान रूप देखते हैं, इससे निःशंक रहते हैं।
परभव का भय निवारण का उपाय ग्यानचक्र मम लोक, जासु अवलोक, मोख-सुख। इतर लोक मम नाहि, नाहिं जिसमाहीं दोख दुख॥ पुन्न सुगति दातार, पाप दुरगति पद-दायक।
दोऊ खंडित खानि, मैं अखंण्डित सिवनायक। इहविधि विचार परलोक-भय, नहि व्यापत वरतै सुखित।
ग्यानी निसंक निकलंक निज, ग्यान रूप निरखत नित॥ ज्ञान का पिण्ड आत्मा ही हमारा लोक है, जिसमें मोक्ष का सुख मिलता है। जिसमें दोष और दुख हैं ऐसे स्वर्ग आदि अन्य लोक मेरे नहीं हैं। सुगति दाता पुण्य और दुःखदायक दुर्गति पद का दाता पाप है सो दो ही नाश्वान हैं और मैं अविनाशी हूँ - मोक्षपुरी का बादशाह हूँ ऐसा विचार करने से परलोक का भय नहीं सताता। मनुष्य अपने आत्मा को सदा निष्कलंक और ज्ञानरूप देखते हैं। इससे नि:शंक रहते हैं।
मरण का भय निवारण करने का उपाय फरस जीभ नासिका, नैन अरु श्रवने अच्छ इति। मन वच तन बल तीन, स्वास उस्वास आउ-थिति॥ ये दस प्रान-विनास, ताहि जग मरन कहिज्जई।
ग्यान-प्रान संजुगत, जीव तिहुं काल न छिज्जइं॥ यह चिंत करत नहि मरन भय, नय प्रवीन जिनवर कथित।
ग्यानी निसंक निकलंक निज, ग्यान रूप निरखत नित॥ स्पर्श, जीभ, नाक, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ मन, वचन, काय ये तीन बल श्वासोच्छवास और आयु दस प्राणों के वियोग को लोक में लोग मरण कहते है, परन्तु आत्मा
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