SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तभयों के नाम इह भव भय परलोक-भय, मरन वेदना - जात। अनरच्छा अनगुप्त-भय, अकस्मात भय सात ।। इहभव-भय परलोक-भय, मरण-भय, वेदना भय अनरक्षा भय अनगुप्त भय और अकस्मात् भय-ये सात भय हैं। सप्तभयका स्वरूप दसधा परिग्रह वियोग-चिंता इह भव, दुर्गति - शमन भय परलोक मानिये । प्राननि कौ हरन मरन म कहावै सोइ, रोगादिक कष्ट यह वेदना बखानिये ।। इच्छुक हमारी कोऊ नंहि अनरच्छा-भय, चोर मैं विचार अनगुप्त मन आनिये । अनचित्यौं अबही अचानक कहापैं होइ, ऐसौ भय अकस्मात् जगत मैं जानिये ।। 1. इस भव का भयः- क्षेत्र वास्तु आदि दस प्रकार के परिग्रह का वियोग होने की चिंता करना इस भव का भय है। 2. परलोक का भयः- कुगति में जन्म होने का डर मानना परलोक भय है। 3. मरण भय:- दस प्रकार के प्राणों का वियोग हो जाने का डर मानना मरण भय है। 4. वेदना भयः- रोगादिक दुख होने का डर मानना वेदना भय है। 5. अनरक्षा भयः- कोई हमारा रक्षक नहीं है, ऐसी चिन्ता करना अनरक्षा भय है। 6. अगुप्त भयः चोर व दुश्मन आवे तो कैसे बचेगें, ऐसी चिन्ता अगुप्त भय है। 7. अकस्मात् भयः- अचानक कुछ विपति न आ जाये ऐसी चिन्ता अकस्मात् भय है। इह भव भय निवारण का उपाय नख सिख मित परवान, ग्यान अवगाह निरक्खत । आतम अंग अभंग संग, पर धन इम अक्खत ॥ छिनभंगुर संसार - विभव, परिवार-भार जसु । जहाँ उतपति तहाँ प्रलय, जासु संयोग विरह तसु ॥ 130
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy