SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा कहकर श्रद्धापूर्वक मन्त्र बोलकर निःशंक होकर छीकें की रस्सी काट दी अहो। आश्चर्य नीचे गिरने के पहले ही उसे देव देवियो ने ऊपर ही झेल लिया और कहा मन्त्र के ऊपर तुम्हारी निशंक श्रद्धा से तुम्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो गयी हैं। उसकी वजह से तुम्हें आकाश मार्ग से जहाँ भी जाना हो जा सकते हो। तब अंजन चोर को चोरी के भाव का अभाव हो गया। वह जैनधर्म का परम भक्त बन गया वह कहने लगा जिनदत्त सेठ के प्रताप से मुझे यह विद्या सिद्ध हुई है। जिस प्रकार वे भगवान के दर्शन करने के लिए जहाँ जाते है। वहाँ जाने की मेरी इच्छा हुई है। वहाँ जाकर जो वे करते है। वैसा ही करने की मेरी इच्छा है। विद्या सिद्ध होने पर अंजन ने विचार किया “ अहो! जिस जैनधर्म के मन्त्र के प्रभाव से मेरे जैसे चोर - को यह विद्या सिद्ध हुई तो वह जैनधर्म कितना महान होगा। उसका स्वरूप कितना पवित्र होगा। जिस सेठ के प्रताप से मुझे यह विद्या मिली, उसी सेठ के पास जाकर जैनधर्म के स्वरूप को समझैं और उन्हीं से वह मन्त्र भी सीखलूँ जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो सके" ऐसा विचार कर विद्या के बल से मेरू पर्वत पर पहुँचा । वहाँ पर रत्नमयी अद्भुत अरिहन्त भगवन्तों की वीतरागता देखकर बहुत प्रसन्न हुआ उस समय जिनदत्त सेठ वहाँ पर मुनिवरों का उपदेश सुन रहे थे। अंजन ने उनका बहुत उपकार माना और मुनिराजों के उपदेश को सुनकर शुद्धात्म के स्वरूप को समझा शुद्धात्मा की निःशंक श्रद्धा पूर्वक निर्विकल्प अनुभव करके उसने सम्यक्दर्शन प्राप्त किया, इतना ही नहीं, पूर्व के पापों का पश्चाताप करके उसने मुनि के पास दीक्षा ली, साधु बनकर आत्मध्यान करते-करते उन्हें केवलज्ञान हुआ, पश्चात् वे कैलाश गिरि से मोक्ष पाकर सिद्ध हुए । जो अजंन से निरंजन बने उन्हें हमारा नमस्कार हो । पुरूषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं: सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञैः । किमु सत्यमसत्यं वा न जातुशंकेतिकर्तव्या ॥२३॥ सर्वज्ञ देव द्वारा कहा गया समस्त वस्तु समूह अनेकान्त स्वभाव रूप है, वह क्या सत्य है अथवा असत्य है? ऐसी शंका कभी भी नहीं करना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं: सम्महिट्टी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया तेण । सतभयविप्यमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्सं का ॥ सम्यक्ति जीव होते निःशंकित इसही से निर्भय रहें। हैं सप्तमय अविमुक्त वे, इसही से वे निःशंक है ॥ 129
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy