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________________ आनन्द रूप सौन्दर्ययुक्त ललितांग नाम का पुत्र हुआ। उन राजा रानी के लाड़ प्यार के कारण ललितांग को विद्यार्जन भी नहीं कराई, इस कारण वह बुरीसंगति में पड़ गया और वह चोरी करने लगा। जब यह बात राज को पता लगी तो राजकुमार ललितांग को दुराचारी जानकर राज्य से बाहर निकाल दिया। उसने एक ऐसे अंजन (काजल) को सिद्ध कर लिया जिसके लगाने से वह अदृश्य हो जाता था वह काजल उसे चोरी करने में सहायक बना था। इसलिए वह अंजन चोर नाम से प्रसिद्ध हुआ। चोरी करने के उपरान्त वह जुआ और वेश्या-सेवन जैसे महापाप भी करने लगा। एक बार उसकी प्रेमिका अनंतसुन्दरी ने रानी के गले में सुन्दर रत्नहार देखा और उसे पहनने की उसके मन में तीव्र इच्छा हुई। जब अंजन चोर उसके पास आया तो उसने कहा-हे अंजन। अगर तुम्हारा मुझ पर सच्चा प्रेम है तो रानी के गले का रत्नहार मुझे लाकर दो। अंजन ने कहा देवी, यह बात तो मेरे लिए बहुत आसान है। वह चतुर्दशी के रात में राजमहल में गया और रानी के गले का हार चुराकर भागने लगा। रानी का अमूल्यरत्नहार चोरी होने से चारों ओर हा-हाकार मच गया। सिपाही दौड़े उन्हें चोर तो दिखाई नहीं देता था लेकिन उसके हाथ में पकड़ा हुआ हार अन्धेरे में जगमगाता हुआ दिखाई देता था। उसे देखकर सिपाही उसे पकडने के लिए पीछे-पीछे भागे। पकडे जाने के भय से अंजन चोर पीछे की तरफ हार फेंककर भाग गया और श्मशान में पहुँचा। थक जाने के कारण एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। तब वहाँ उसने एक आश्चर्य कारी घटना देखी एक मनुष्य को उसने पेड पर छीका बाधकर उसमें चढते उतरते देखा जो कुछ बोल भी रहा था - जब छींके पर चढ़ता तब नीचे लगे भालों को देखकर उसे डर लगता था क्योंकि जिनदत्त सेठ का बताये हुआ णमोकार मन्त्र में उसे शंका थी। वह विचार करता था कि कदाचित, मन्त्र सच्चा नहीं रहा और मैं नीचे गिर पड़ा तो मेरा शरीर छिद जायेगा ऐसी शंका से वह नीचे उतर जाता थोड़ी देर पश्चात् उसे ऐसा विचार आता कि सेठ जी ने जैसा कह वह सच्चा होगा। अत: फिर छींके मे जाकर बैठ जाता इस प्रकार वह बार-बार छींके से चढ़ता उतरता, लेकिन वह नि:शंक होकर उस रस्सीको नहीं काट सका। जिस प्रकार चैतन्य भाव की निःशंकता बिना शुद्ध, अशुद्ध के विकल्प में झूलता हुआ जीव निर्विकल अनुभव रूप आत्म विद्या को साध नहीं सकता उसी प्रकार मन्त्र के सन्देह में झूलता हुआ वह माली मन्त्र सिद्ध नहीं कर सका। इतने में अंजन चोर माली को ऐसी विचित्र क्रिया करते हुये देखकर पछता है। अरे भाई यहाँ रात में तुम यह क्या कर रहे हो। सोमदत्त माली ने उसे सब बात बताई उसे सुनते ही अंजन चोर का णमोकार मन्त्र पर परम विश्वास हो गया, उसने माली से कहा-'लाओ मैं इस मन्त्र को सिद्ध करता हूँ।' = 128
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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