SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतः तप के गर्व को महान अनर्थ का कारण जानकर भव्य जीवों को तप का गर्व करना उचित नही है। शरीर या रूप मद :- सम्यग्दृष्टि को शरीर के रूप का गर्व नहीं होता क्योंकि वह अपना रूप तो ज्ञानमय जानता देखता है जिसमें सभी पदार्थों का यथार्थ स्वरूप दिखाई देता है। ये चमड़े का शरीर का रूप मेरा रूप नहीं है। इस देह का रूप क्षण-क्षण में विनाशशील है। एक दिन आहार पान नहीं करे तो महा विरूप दिखने लगता है। इस देह का रूप समय-समय विनशता रहता है। यदि बुढ़ापा आ जाये तो अभद्र भयकारी दिखने लगता है। यदि रोग दरिद्रता आदि आ जाये तो किसी के देखने लायक छूने लायक भी नहीं रह जाता है। इस रूप का गर्व कौन ज्ञानी करता है। यह तो एक ही क्षण में अंधा हो जाये, काना हो जाये, कुबड़ा, लूला, डूंठा, वक्रमुख, वक्रग्रीव, लम्बोदर, विद्रूप हो जाये, इसका कौन ठिकाना ? यहाँ रूप का गर्व करना बड़ा अनर्थ है। सुन्दर रूप पाकर शील को मलिन नहीं करो दरिद्री, दुखी, रोगी, अंगहीन, कुरूप, मलिन देखकर उसका तिरस्कार नहीं करो, ग्लानि नहीं करो, दया ही करो संसार महाकुरूप मनुष्य तिर्यंचों का महाअभद्र, भयंकर, रूप आदि अनेकों बार पाया है। छह अनायतन (दोहा) कुगुरु कुदेव कुधर्म धर, कुगुरू कुदेव कुधर्म | इनकी करै सराहना, यह षडायतन कर्म ॥ कुगुरु, कुदेव, कुधर्म के उपासकों और कुगुरु, कुदेव, कुधर्म की प्रशंसा करना ये छह अनायतन है। आठ शंकादि दोष 1. शंका 2. कांक्षा 3. विचिकित्सा 4. मूढदृष्टि 5. अनुपगूहन 6. अस्थितिकरण 7. अवात्सल्य और 8 अप्रभावना । 1. शंका:- जिन धर्म में शंका का होना। 2. कांक्षा:- धर्म का सेवन करके भी विषयों की वांछा करना। 3. विचिकित्सा:- अशुभ कर्म के उदय से प्राप्त हुई अशुभ सामग्री में ग्लानि करना । 4. मूढदृष्टि:- खोटे शास्त्रों से व्यन्तर आदि देव कृत विक्रिया से, मणि-मंत्र औषधि आदि के प्रभाव से अनेक वस्तुओं का विपरीत स्वभाव देखकर सच्चे धर्म से चलायमान होना । 125
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy