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________________ पाया है तो दुःखित जीवों के उपकार में लगाओ, विनयवान होकर दान दो। अपना परमात्मस्वरूप ऐश्वर्य जानकर इस कर्मकृत ऐश्वर्य से विरक्त होना ही योग्य हैं। कुलमदः - पिता के वंश को कुल कहते हैं। ऊँच-नीच कुल भी अनन्तवार प्राप्त हुआ है। संसार में जाति का कुल का मद कैसे किया जा सकता है? स्वर्ग के महान ऋद्धिधारी देव मरकर एकेन्द्रिय में आकर उत्पन्न हो जाते हैं। श्वान आदि निंद्य तिर्यंचों में उत्पन्न हो जाते हैं तथा उत्तम कुल के धारी होकर भी चांडाल आदि में उत्पन्न हो जाते हैं। हे आत्मन् ! तुम्हारा जातिकुल तो सिद्धों के समान है। ऐसा जानकर कभी भी कुल का मद नहीं करना चाहिए । जातिमदः- सम्यग्दृष्टि के ऐसा सच्चा विचार होता है- हे आत्मन् । यह उच्च जाति है वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। यह तो कर्म का परिणमन है। परकृत है, विनाशशील है, कर्माधीन है। माता के वंश को जाति कहते हैं। संसार में अनेक बार अनेक जाति पाई हैं। यह जीव अनेक बार चांडाली, भीलनी, म्लेच्छनी, चमारी, धोबिन, नाईन, डोमनी, नटनी, वैश्या, दासी, कलारिन, धीवरी आदि मनुष्यनी के गर्भ में उत्पन्न हुआ है। सूकरी, कूकरी, गर्दभी, स्यालनी, कागली, इत्यादि तिर्यंचनी के गर्भ में अनन्त बार उत्पन्न होकर मरा है। अनन्त बार नीच जाति में उत्पन्न होने के बाद उच्च जाति पाता है। इसी प्रकार से अनंत बार उच्च जाति भी पायी है तो भी संसार परिभ्रमण ही करता रहा इसलिए जाति का मद नहीं करना चाहिए। बलमद:- जिस बल से कर्म रूपी बैरी को जीता जाता है। काम क्रोध लोभ को जीता जाता है। वह बल प्रशंसा योग्य है। देह का बल, यौवन का बल, ऐश्वर्य का बल पाकर अन्य निर्बल अनाथ जीवों को मार डालना, ठग लेना, धन छीन लेना, जमीन-जीविका छीन लेना, कुशील सेवन करना, दुराचार में प्रवर्तन करना, वह बल प्रशंसा योग्य नहीं है। वह बलमद तो नरक के घोर दुखों को असंख्यात काल तक भोगकर तिर्यंचगति में मारण, ताड़न, लादन द्वारा तथा दुर्वचन, क्षुधा, तृषा आदि के अनेक दुःख अनेक पर्यायों में भोगकर, एकेन्द्रियों में समस्त बल रहित असमर्थ कर देगा। अतः बल का मद छोड़कर संयम धारण करके उत्तम तप करना योग्य है। ऋद्धिमदः- ज्ञानी को ऋद्धि अर्थात् धनसंपति पाने का गर्व नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि तो धन आदि के परिग्रह को महाभार मानते है। वह विचारता है कि ऐसा दिन कब आयेगा जब मैं समस्त परिग्रह के भार को छोड़कर अपने आत्मधन की सम्भाल करूँगा? धन परिग्रह के भार का महाबन्धन है। राग द्वेष, भय, संताप, शोक, क्लेश, बैर, हानि महाआरम्भ के कारण है। मद उत्पन्न करने वाले हैं और दुःख रूपी दुर्गति के बीज हैं। तपमदः सम्यक्त्व बिना मिथ्यादृष्टि का तप निष्फल है। जो तप का ऐसा मद करता है किमैं बड़ा तपस्वी हूँ वह तप के मद के प्रभाव से बुद्धि को नष्ट करके दुर्गति में परिभ्रमण करेगा। 124 -
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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