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गुरु मूढता
ग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्त वर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम् ॥24
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार
परिग्रह, आरंभ और हिंसा सहित संसार भंवरों में प्रवर्तन करने वाले पाखण्डियों को प्रधान मानकर उनके वचनों में आदर पूर्वक प्रवर्तन करना पाखण्ड मूढता है।
जिनेन्द्र के धर्म के श्रद्धान और ज्ञान रहित होकर जो अनेक प्रकार का भेष धारण करके, स्वयं को ऊँचा मानकर, जगत के जीवों के पूजा - वन्दना - सत्कार चाहते हुए परिग्रह रखते हैं, अनेक प्रकार के आरम्भ करते हैं, हिंसा के कार्यों में प्रवर्तते हैं, इन्द्रियों के विषयों के रागी - संसारी- असंयमी - अज्ञानियों से गोष्ठी वर्ता करके अभिमानी होकर, स्वयं को आचार्य, पूज्य, धर्मात्मा कहते हुए रागी-द्वेषी होकर प्रवर्तते है ; युद्ध शास्त्र, श्रृंगार के शास्त्र, हिंसा के आरंभ के शास्त्र, राग के बढ़ाने वाले शास्त्रों का स्वयं महन्त होकर उपदेश देते हैं वे सब पाखण्डी हैं। ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ।। 25
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार
जिनका मद नष्ट हो गया है ऐसे गणधर देव ने मद आठ प्रकार के कहे हैं- (1) ज्ञान (2) पूजा (3) कुल (4) जाति (5) बल (6) ऋद्धि (7) तप और (8) शरीर इन आठों का आश्रय कर जो मान होता है उसे स्मय (मद) कहते हैं।
ज्ञानमदः - शास्त्र ज्ञान - श्रुत ज्ञान का गर्व नहीं करना चाहिए। आत्मज्ञान रहित का श्रुतज्ञान निष्फल है, क्योंकि ग्यारह अंग का ज्ञान धारी होकर के भी अभव्य संसार ही में परिभ्रमण करता है । सम्यक्दर्शन बिना अनेक व्याकरण, छन्द, अलंकार काव्य, कोष आदि का पढ़ना विपरीत धर्म में अभिमान और लोक में प्रवर्तन कराकर संसार रूप अंधकूप में डुबोनेवाला ही जानना । इस इंद्रियजनित ज्ञान का क्या गर्व करना है? एक क्षण में वात, पित्त, कफ आदि के घटने बढने से चलायमान हो जाता है।
पूजामद:- ऐश्वर्य पाकर उसका मद कैसे किया जा सकता है? यह ऐश्वर्य तो अपनी आत्मा का स्वरूप भुलाएं बहुत आरम्भ, राग द्वेष आदि में प्रवृति कराकर चतुर्गति में परिभ्रमण का कारण है। निर्ग्रन्थपना तीन लोक में ध्याने योग्य है। पूज्य है। यह ऐश्वर्य क्षणभंगुर है। बड़े-बड़े इन्द्र- अहमिन्द्रों का ऐश्वर्य भी पतन सहित है। बलभद्र नारायण का भी ऐश्वर्य क्षणमात्र में नष्ट हो गया, अन्य जीवों का तो कितना सा ऐश्वर्य है? ऐसा जानकर यदि दो दिन के लिए ऐश्वर्य
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