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दूसरी ओर-जिस मूंग को कभी अग्नि का संयोग ही न मिले, पानी का संयोग ही न मिले, वह मँग भी टर्रा मँग के बराबर ही माना जाता है, ऐसे जीवों को ही दूरान्दूर भव्य या अभव्यसम जीव कहते हैं।
अभव्य प्राणी और दूरान्दूर भव्य या अभव्य सम भव्य को इस प्रकार भी समझना चाहिए कि जैसे - एक बन्ध्या स्त्री होती है, उसको कभी भी पुत्र प्राप्ति नहीं हो सकती है, चाहे सभी निमित्त जो पुत्र प्राप्ति के लिए आवश्यक होते हैं, प्राप्त हो जाएँ यह अभव्य के समान है।
दूसरी ओर एक विधवा स्त्री, जिसमें पुत्र उत्पन्न करने की पूर्ण क्षमता तो होती है, अच्छे घराने की व शीलवती भी है, किन्तु अनुकूल निमित्तों का अभाव हो जाने से कभी भी पुत्र को नहीं जन्म दे सकती। इसकी स्थिति दूरान्दूर भव्य के बराबर होती है, जिसमें योग्यता तो है किन्तु निमित्तों के अभाव में उसको कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती हैं।
जिन्दगी इक पल कभी कोई बढ़ा नहीं पायगा। रस रसायन सुत सुभट कोई बचा न पायगा। सत्यार्थ है बस बात यह कुछ भी कहो व्यवहार में। जीवन-मरण अशरण शरण कोई नहीं संसार में।
संयोग है अशरण सभी निज आतमा ध्रुवधाम है। पर्याय व्ययधर्मा परन्तु शाश्वत धाम है। इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है। धुवधाम की आराधना आराधना का सार है।
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