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________________ षष्ठ अध्याय : सम्यक्त्व सम्यक्त्व के अन्तर्गत उसके पच्चीस दोष और नि:शंक, नि:कांक्ष, निर्विचिकित्सा, अमढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना अंगों का विस्तृत विवरण यहाँ प्रस्तुत है सम्यक्त्व के 25 दोष सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर उसको शुद्ध और निर्मल बनाना होगा। निर्मल सम्यग्दर्शन ही संसार भ्रमण को नष्ट करने में समर्थ होता है। जिस प्रकार आटे में जरा सी धूल मिलने पर आटे की रोटी का स्वाद नष्ट हो जाता है उसी प्रकार 25 दोष धूल के समान होते हैं। इन्हें न करना ही निर्मल सम्यक्त को प्राप्त करना है। अत: उनसे बचने के लिए उन्हें जानना आवश्यक है। मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट्। अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः।। (ज्ञानार्णव 6 सर्ग से ग्रंथान्तरे) तीन मूढता (लोक मूढता, देव मूढता, गुरु मूढता), आठ मद, छह अनायतन, आठ शंकादि दोष ये सब मिलाकर 25 दोष होते हैं। सम्यग्दर्शन 25 दोषों रहित होता है। इसी को पं. बनारसीदास भी कहते हैं: अष्ट महामद अष्ट मल, षट् अनायतन विशेष। तीन मूढता संजुगत, दोष पचीसौं एष।। लोक मूढता: आपगा-सागर-स्नान-मच्चयः सिकताश्मनाम। गिरिपातो ऽग्निपातश्च लोकमूढ निगद्यते ।। रत्नकरण्डश्रावकाचार जो, लौकिक मिथ्याधर्मी लोगों का आचरण देखकर नदी में स्नान करने में धर्म मानते हैं, समुद्र में स्नान करने में धर्म मानते हैं, रेत का ढेर अथवा पाषाण का ढेर लगाने में धर्म मानते हैं, अग्नि में जलने में धर्म मानते हैं उसे लोक मूढता कहते हैं। सम्यग्दर्शन लोक मूढता रहित होता है। ' बालू का पिण्ड बनाने में, पर्वत से गिरने में, अग्नि में जलने में, पंचाग्नि तप तपने में धर्म मानना लोक मूढता है। सूर्यचन्द्र ग्रहणादि में सूतक मानना, स्नान करना, चांडाल आदिको दान देना, संक्राति मानकर दान देना; कुंआ पूजना, पीपल पूजना, गाय को पूजना, रूपया-सिक्का-मोहर को पूजना, लक्ष्मी को पूजना, मृत पितरों को पूजना, छींक पूजना; मृतकों को तृप्त करने के लिए = 121)
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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