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________________ आचार्य पूज्यपाद स्वामी समाधिशतक में कहते हैं : - यो न वेत्ति पर देहादेवमात्मानमव्ययम्। लभते न स निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः॥ जो कोई शरीरादि से भिन्न इस प्रकार के ज्ञाता-दृष्टा अविनाशी आत्मा को नहीं जानता हैं वह उत्कृष्ट तप तपते हुए भी निर्वाण को नहीं पाता। आचार्य कुन्दकुन्द मोक्षपाहुड में कहते हैं: किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि वहुविहं च खवणं तु। किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो।।99॥ जो आत्मा के स्वभाव से विपरीत है, आत्मा का अनुभव नहीं करता है, उसके लिए बाहरी क्रिया काण्ड क्या फल दे सकता है? नाना प्रकार उपवासादि तप क्या कर सकता है। आतापन योगादि काय क्लेश क्या कर सकता है? अर्थात् वे मोक्ष के साधक नहीं हो सकते। मोक्ष का साधन एक आत्मज्ञान है। आचार्य योगीन्दु स्वामी कहते हैं कि गृहस्थ भी निर्वाणमार्ग पर चल सकता है गिहिवावारपरट्टि या हे याहे उ मुणं ति। अणुदिणु झायहि देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति॥ जो गृहस्थ के व्यापार में लगे हुए हैं तथा हेय-उपादेय (त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य को) जानते हैं तथा रातदिन जिनेन्द्रदेव का ध्यान करते हैं वे शीघ्र निर्वाण को पाते हैं। शुद्ध आत्मा का मनन ही मोक्षमार्ग है। सधु सचेयणु बुधु जिणु केवलणाणसहाउ। सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइ चाहहु सिवलाहु॥ - योगसार, 26 यदि मोक्ष का लाभ चाहते हो तो रातदिन उस आत्मा का मनन करो जो शुद्ध वीतराग निरंजन कर्म रहित है चेतना गुण धारी है, या ज्ञान चेतना मय है, जो स्वयं बुद्ध है, जो जिनेन्द्र है वे जो पूर्ण निरावरण ज्ञान स्वभाव का धारी है अर्थात् केवलज्ञान का धारी है। जो पर की संगति करता है वह बंध को प्राप्त करता है और जो निज सत्ता में मगन रहता है, वह मुक्त होता है: 'पर की संगति जौ रचै, बन्ध बढ़ावै सोइ। जो निज सत्ता में मगन, सहज मुक्त सो होई॥ - 116
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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