SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शरीर के मौज शौक में ही सुख मानता है। मोक्ष में देह, इन्द्रिय, खान पान आदि कुछ भी नहीं होता, इसलिए अज्ञानी अतीन्द्रिय मोक्ष सुख को नहीं मानता यह उसकी मोक्ष तत्व सम्बन्धी भूल है। योगीन्दु देव कहते हैं कि आत्मध्यान ही मोक्ष का कारण है: जड़ वीहउ चउगइगमणा तो परभाव चएहि । अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिवसुक्ख लहेहि ॥ - योगसार यदि चारों गतियों के भ्रमण से भयभीत है तो परभावों को छोड़ दे निर्मल आत्मा का ध्यान कर जिससे मोक्ष के सुख को तू पा सके। आचार्य कहते हैं कि पुण्य कर्म मोक्ष सुख नहीं दे सकता: अह पुणु अप्पा णवि मुणहि पुण्णु जिकरइ असेसु । तड वि ण पावहि सिद्धसुहु पुणु संसारू भमेस ॥ - योगसार यदि तू आत्मा को नहीं जानेगा सर्व पुण्य कर्म को ही करता रहेगा तो भी तू सिद्ध के सुख को नहीं पावेगा पुनः पुनः संसार में ही भ्रमण करेगा। आचार्य कहते हैं- परिणामों से ही बन्ध व मोक्ष होता है: परिणामे बंधु जि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियाणि । इउ जाणेविणु जीव तुहुँ तहभावहु परियाणि ॥ परिणाम से ही कर्म का बंध कहा गया है वैसे ही परिणामों से ही मोक्ष को जान, ऐसा समझकर तू उन भावों की पहिचान कर । आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं वदणियमाणि धरन्ता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमट्टबाहिस जेण तेण ते होंति अण्णणी ॥ अर्थपरमट्ट बाहिर जेते अणुणसामेपासापुण्ण मिच्छति । संसारगमणहेतु विम्मोक्ख हेदु अयाणंता ।। - योगसार , हे आत्मन! जो व्रत नियम धारे, पाले, तप करे, परन्तु निश्चय आत्म स्वभाव के धर्म से बाहर हो तो ये सब अज्ञानी वहिरात्मा है। परमार्थ आत्म तत्त्व को जो नहीं समझते वे अज्ञान से संसार भ्रमण के कारण पुण्य की ही वांछा करते हैं। क्योंकि उनको मोक्ष के कारण का ज्ञान ही नहीं है। 115
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy