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वह भावमोक्ष है और आत्मा से समस्त कर्मों का अत्यन्त छिन्न हो जाना द्रव्यमोक्ष है। वह द्रव्यमोक्ष अयोगकेवली के अंतिम समय में होता है। वह मोक्ष आत्मस्वरूप ही है। जैसे सुवर्ण से आंतरिक और बाह्य मैल निकल जाने पर सवर्ण के स्वाभाविक गुण चमक उठते हैं, वैसे ही कर्म बन्धन से सर्वथा छूट जाने पर आत्मा स्वाभाविक रूप में स्थिर हो जाता है, यही मोक्ष है। अतः मोक्ष आत्म स्वभाव के अविरूद्ध है। मुक्तावस्था प्राप्त होने पर, उसके किसी भी गुण का नाश नहीं होता। कुछ ऐसे भी मतावलम्बी है जो मुक्तावस्था में आत्मा के विशेष गुणों का नाश मानते हैं। परन्तु आत्मा का अभाव नहीं होता और न ही उसके किसी गुण का अभाव होता है; बल्कि ज्ञान, सुख आदि गुण और चमक उठते हैं। संसार अवस्था में इन्द्रिय जन्य ज्ञान इन्द्रिय जन्य सुख होता था जो कि एक तरह से पराधीन होने से दुःखरूप ही था। इन्द्रियों की पराधीनता के मिट जाने से मुक्तावस्था में स्वाधीन, स्वाभाविक अतिन्द्रिय ज्ञान और अतिन्द्रिय सुख प्रगट हो जाते हैं जो कभी नष्ट नहीं होते।
भेदज्ञान आरा सौं दुफारा करै, ग्यानी जीव, आतम करम धार भिन्न चरचै। अउभौ अभ्यास लहै परम धरम वाहै, करम भरम को खजाना खोल खरचै॥ यौही मोख मख धावै केवल निकट आवै, परन समाधि लहै परमको परचै। भयौ निरदौर यहि करनौ न कछु और, ऐसौ विश्वनाथ तहि बनारसी अरच।।
(समयसार नाटक) ज्ञानी जीव भेदज्ञान की करौंत से आत्म परिणति और कर्मपरिणति को पृथक करके उनको पृथक-पृथक जानता है और अनुभव का अभ्यास तथा रत्नत्रय ग्रहण करके ज्ञानावरणादि कर्म व राग द्वेषादि विभाव का खजाना खाली कर देता है। इस रीति से वह मोक्ष के सन्मुख दौड़ता है। जब केवलज्ञान उसी के समीप आता है तब पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके परमात्मा बन जाता है और ससार की भटकन मिट जाती है तथा करने को कुछ बाकी नहीं रह जाता है अर्थात् कृत्य कृत्य हो जाता है। ऐसे त्रिलोकीनाथ को पं. बनारसीदास नमस्कार करते हैं।
मोक्ष के भेद सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो।
णेओ सभावमोक्खो दव्वविमोक्खो य कम्मपुहुभावो॥ आत्मा के जो परिणाम समस्त कर्मों के क्षय होने में कारण हैं वही भावमोक्ष जानना चाहिए और आत्मा से द्रव्यकर्मों का छूटना सो द्रव्यमोक्ष है।
मोक्षतत्त्व की भूल :- आत्मा की परिपूर्ण शुद्ध दशा का प्रकट होना, मोक्ष है। उसमें आकुलता का अभाव है- पूर्ण स्वाधीनता निराकुल सुख है, किन्तु अज्ञानी जीव ऐसा न मानकर
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