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प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में करणत्रयवर्ती विशुद्ध परिणाम युक्त मिथ्यादृष्टि से असंयत सम्यग्दृष्टि के असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है, उससे देशव्रती श्रावक की असंख्यातगुणी निर्जरा होती है, उससे महाव्रती मुनियों के असंख्यात गुणी निर्जरा होती है, उनसे अनन्तानुबन्धी कषाय का विसयोजन (अप्रत्याख्यानादि रूप परिणमाना) करने वाले के असंख्यात गुणी होती है, उससे दर्शनमोह के क्षय करने वाले के असंख्यात गुणी होती है, उससे उपशम श्रेणी वाले तीन गुणस्थानों में असंख्यात गुणी होती है, उससे उपशांत मोह ग्यारहवें गुण्स्थान वाले के असंख्यात गुणी होती है, उससे क्षपक श्रेणी वाले तीन गुणस्थानों में असंख्यात गुणी होती है, उससे क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान में असंख्यात गुणी होती है, उससे सयोग केवली के असंख्यात गुणी होती है, उससे अयोग केवली के असंख्यात गुणी होती है, ये ऊपर-ऊपर असंख्यात गुणाकार है इसलिए इनको गुण निर्जरा कहते हैं। आचार्य शुभचन्द्र ज्ञानाणर्व में कहते हैं
ध्यानानलसमालीढमप्यनादिसमुद्भवम्।
सद्यः प्रक्षीयते कर्मशुद्धयत्यङ्गी सवर्णवत्॥८॥ यद्यपि कर्म अनादि काल से जीव के साथ लगे हुए हैं, तथापि वे ध्यान रूपी अग्नि से स्पर्श होने पर तत्काल ही क्षय हो जाते हैं। उनके क्षय हो जाने से जैसे अग्नि के ताप से सुवर्ण शुद्ध होता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी तप से कर्म नष्ट करके शुद्ध (मुक्त) हो जाता है। सम्यग्ज्ञान के बिना सम्पूर्ण चरित्र निस्सार है
जो नर सम्यकवंत कहावत, सम्यग्ज्ञान कला नहि जागी। आतम अंग अबंध विचारत, धारत संग कहै हम त्यागी।। भेष धरै मुनिराज-पटतर, अंतर मोह-महा-नल दागी। सुन्न हिये करतूति करै वर, सो सठजीव न होय विरागी॥
(समयसार नाटक) जिस मनुष्य के सम्यक् ज्ञान की कला तो प्रगट हुई नहीं और स्वयं को सम्यग्दृष्टि मानता है, वह निजात्म स्वरूप को अबंध चितवन करता है, (एकांत पक्ष लेकर), शरीरादि पर वस्तुओं में ममत्व रखता है और कहता है कि हम त्यागी हैं, वह मुनिराज के समान भेष धरता है परन्तु अंतरंग में मोह की महा ज्वाला धधकती है, वह शून्य हृदय होकर मुनिराज जैसी क्रिया करता है परन्तु वह मूर्ख है, साधु नहीं द्रव्य लिगी है।
जो बिनु ज्ञान क्रिया अवगा है, जो बिनु क्रिया मोख पद चाहै।। जो बिनु मोख कहै मैं सुखिया, सो अजान मूढनि में मुखिया।
(समयसार नाटक)
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