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________________ जो सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र धारण करता है, या बिना चारित्र के मोक्षपद चाहता है तथा बिना मोक्ष के अपने को सखी कहता है, वह अज्ञानी है मूखों में प्रधान अर्थात् महामूर्ख है। आत्मानुभव ग्रहण की शिक्षा जो पद भौपद भय हरें, सो पद सेऊ अनूप। जिति पद परसत और पद, लगै आपदा रूप (नाटक समयसार) जो जन्म मरण के भय को हटाता है, उपमा रहित है जिसे ग्रहण करने से सब पद विपत्ति रूप भाने लगते हैं उस आत्मानुभव पद को अंगीकार करो। अज्ञानी जीव श्रीगुरु उपदेश नहीं मानते जगवासी जीवन सौं गुरु उपदेश कहै , तुम्हें इहा सोवत अनंत काल वीते हैं। जागौ है सचेत चित्त समता समेत सुनौ, केवल-बचन जागै अक्ष-रस जीते हैं। आवौ मेरे निकट बताऊं मै तुम्हारे गुन, परम सुरस-भरे करम सौ रीते हैं। ऐसे बैन कहे गुरू तोऊ ते न धरै उर, मित्र कैसे पुत्र किधौं चित्र कैसे चीते हैं। (समयसार नाटक) श्री गुरु जगवासी जीवों को उपदेश करते हैं कि तुम्हें इस संसार में मोह निद्रा लेते हुए अनन्त काल बीत गया; अबतो जागो और सावधान व शान्तचित होकर भगवान की वाणी सुनो, जिससे इन्द्रियों के विषय जीते जा सकते हैं। मेरे समीप आओ, मैं कर्म-कलंक रहित परम आनन्दमय तुम्हारे आत्मा के गुण तुम्हें बताऊँ। श्री गुरु ऐसे वचन कहते हैं तो भी संसारी जीव कुछ ध्यान नहीं देते मानों वे मिट्टी के पुतले हैं अथवा चित्र में बने हुए मनुष्य हैं। निर्जरा तत्त्व निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट है दरिद्र कौन किसी जंगल में एक मुनिराज तपश्चरण कर रहे थे। कुछ समय बाद वहां से राजा और उसके साथी गुजरते हैं। मुनिराज की निग्रंथ गुद्रा को देख कर राजा विचार करता है कि यह तो बहत दरिद्र है, उसके पास तो कुछ भी नहीं है। अतः हमें उसकी मदद करना चाहिए। राजा वापस - 112
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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