________________
6. कायक्लेश : शरीर का सुखियापना मिटाने के लिए कठिन स्थानों में बैठ कर या खड़े
'होकर ध्यान लगाना जैस कभी में आतापन योग धारण करना और कभी शीत में धूप
नदी किनारे ध्यान करना।
7. प्रायश्चित: अपने व्रतों में कोई अतिचार होने पर उसका दण्ड लेकर स्वयं को शुद्ध
-
करना।
8. विनय : सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित्र तथा तप इन चारों का और इनके धारण करने वालों
का आदर करना।
9. वैय्यावृत्य
पूज्य पुरूषों की भक्ति पूर्वक सेवा, चाकरी तथा टहल करना ।
10. स्वाध्याय : शास्त्रों का पढ़ना, विचारना, मनन करना, कण्ठस्थ करना और धर्मोपदेश देना ।
11. व्युत्सर्ग : शरीर से, सांसारिक भोगों तथा पर पदार्थो से विशेष ममत्व का त्यागना । 12. ध्यान : समस्त चिताओं का निरोध करके धर्म में या आत्म चिंतवन में एकाग्र होने का नाम धर्म है।
-
इन बारह व्रतों का पालन करते हुए जितने अंशों में वीतराग भाव होगें उतने अंश में कर्मों की निर्जरा होगी। वीतराग भावों की प्रबलता से कभी-कभी अनेक जन्मों के बाँधे हुए पाप कर्म क्षण मात्र में क्षय हो जाते हैं।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैं:
रत्तो बंधदि कम्मं मुँचदि जीवो विराग सम्पत्तो ।
एसो जिणो वदेसो तह्या कम्मेसु मा रज्ज || 150
रागी जीव कर्मों को बाँधता है, वीतरागी जीव कर्मों से छूट जाता है, ऐसा श्री जिनेन्द्रप्रभु ने कहा है, इसलिए शुभ व अशुभ कर्मों से राग द्वेष मत करो ।
उत्कृष्ट निर्जरा
जो समसोक्खणिलीणो, वारंवारं सरेइ अप्पाणं । इंन्दियकसायविजई, तस्स हवेणिज्जरा परमा ।।
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 114
जो मुनि साम्यरुप सुख में लीन होकर बार बार आत्मा का स्मरण करता है तथा इन्द्रिय और कषायों को जीतता है, उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है। गुणश्रेणी निर्जरा को बताते हुए स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा 106 107 108 में लिखते हैं।
110